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________________ ५४२ ज्ञानसार धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असहमप्फासं । लोगागाढं पुटुं पिहुलमसंख्यादियपदेसं ॥४३॥-पंचास्तिकाये कार्य : ___ गतिपरिणत' जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी कारण है। जिस प्रकार सरोवर, सरिता, समुद्र में रहे हुए मत्स्यादि जलचर जंतुओं के चलने में जल निमित्तकारण बनता है । जलद्रव्य गति में सहायक है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मत्स्य को वह बलपूर्वक गति कराता है । सिद्ध भगवन्त उदासीन होने पर भी सिद्धगुण के अनुराग में परिणत भव्य जीवों की सिद्धि में सहकारी कारण बनते हैं, उसी तरह धर्मास्तिकाय भी स्वयं उदासीन होने पर भी गतिपरिणत जीव-पुद्गल की गति में सहकारी कारण बनता है। जिस प्रकार पानी स्वयं गति किये बिना, मत्स्यों की गति में सहकारी कारण बनता है, उसी तरह धर्मास्तिकाय स्वयं गति किए बिना जीव-पुद्गलों की गति में सहकारी कारण बनता है। अधर्मास्तिकाय : जैसा स्वरुप धर्मास्तिकाय का है वैसा ही स्वरुप अधर्मास्तिकाय का है। कार्य में भेद है। जीव-पुद्गलों की स्थिति में अधर्मास्तिकाय सहायक है। जिस प्रकार छाया पथिकों की स्थिरता में सहायक बनती है अथवा जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं स्थिर रही हुई अश्वमनुष्यादि की स्थिरता में बाह्य सहकारी हेतु बनती है। जीव-पुद्गलों की स्थिति का उपादान कारण तों स्वकीय स्वरुप ही है। अधर्मास्तिकाय व्यवहार से निमित्त कारण है। आकाशास्तिकाय : लोकालोकव्यापी अनन्त प्रदेशात्मक अमूर्त द्रव्य है । आकाशास्तिकाय से १. उदयं जह मच्छाणं गमणाणुगहयरं हवदि लोए। तह जीव पुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ।।८५।। -पञ्चास्तिकाये २. जह हवदि धम्मदव्व तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।।—पञ्चास्तिकाये ३. लोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशात्मकोऽमूर्तद्रव्यविशेषः । –अनुयोगद्वारटीका ४. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥११॥-पञ्चास्तस्तिकाये
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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