________________
परिशिष्ट : पंचास्तिकाय
५४३ व्यतिरिक्त द्रव्य मात्र लोकाकाशव्यापी है, जबकि आकाशास्तिकाय लोक-अलोक दोनों में व्याप्त है।
धर्मास्तिकायादि चार अस्तिकायों को आकाश अवकाश देता है । अर्थात् धर्मास्तिकायादि चार अस्तिकाय लोकाकाश को अवगाहित करते हुए हैं। 'अवगाहिनां धर्मपुद्गलजीवानामवगाह आकाशस्योपकारः ।'
-तत्त्वार्थभाष्य, अ. ५ सू. १८ जीवास्तिकाय :
जो जीता है, जियेगा और जिया है, वह जीव कहलाता है । 'जीवन्ति जीविष्यन्ति, जीवितवन्त इति जीवाः' संसारी जीव दस प्राणों से जीता है, जिएगा और जिया है। पाँच इन्द्रिय, मन-वचन और काया, आयुष्य और उच्छवास, ये दस प्राण हैं। प्रत्येक जीव असंख्यप्रदेशात्मक होता है । स्वदेहव्यापी होता है। अरुपी और अमूर्त होता है । अनुत्पन्न तथा अविनाशी होता है ।
'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' (तत्त्वार्थ, अ. ५, सू. २१)-अन्योन्य उपकार करना यह जीवों का कार्य है। हित के प्रतिपादन द्वारा और अहित के निषेध द्वारा जीव एक दूसरे पर उपकार कर सकते हैं । पुद्गल. नहीं कर सकते ।
जीव का अन्तरंग लक्षण है : उपयोग । 'उपयोगलक्षणो जीवः' । पुद्गलास्तिकाय :
जिसका पूरण-गलन स्वभाव हो वह पुद्गल है । अर्थात् जिसमें हानि-वृद्धि हो, उसे पुद्गल कहा जाता है। पुद्गल परमाणु से लगाकर अनन्ताणुक स्कंध तक होते हैं । पुदगल' के चार भेद हैं । स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु । पुद्गल रुपी हैं। जिसमें स्पर्श-रस-गन्ध और वर्ण हो वह पुद्गल कहलाता है। 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' (तत्त्वार्थ, अ. ५. सू. २३) पंचास्तिकाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्यजी ने पुद्गल को पहचानने की रीति बताते हुए कहा है
उवभोज्जमिदिए हि य इंदिया काया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥८२॥
१. खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणु ।... -
इति ते चदुब्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ।।७४||–पञ्चास्तिकाय-प्रकरणे