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________________ परिशिष्ट : पंचास्तिकाय ५४१ अनादिनिधन त्रिकालावस्थायी द्रव्य की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता । उत्पत्ति और विनाश द्रव्य के पर्याय हैं। जैसे सोने के कड़े को तोड़कर उसका हार बनाया जाता है, उसमें सोने का नाश नहीं होता, परन्तु सोने का जो कड़े के रूप में पर्याय (अवस्था ) है, उसका नाश हो जाता है । उसी तरह सोने की उत्पत्ति नहीं होती परन्तु हार रूप पर्याय उत्पन्न हो जाता है । सोना (द्रव्य) तो कायम रहता है । पर्याय' से भिन्न द्रव्य नहीं और द्रव्य से भिन्न पर्याय नहीं । दोनों अनन्यभूत हैं । अर्थात् पर्याय की उत्पत्ति - विनाश, द्रव्य की उत्पत्ति और द्रव्य का नाश कहा जाता है । पंचास्तिकाय' : धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय 'अस्ति' अर्थात् प्रदेश और 'काय' यानी समूह - अस्तिकाय है । धर्मास्तिकाय : स्वरूप : धर्मास्तिकाय रस, वर्ण, गन्ध, शब्द और स्पर्श से रहित है । अतः वह अमूर्त है । अवस्थित है, अरूपी है, निष्क्रिय है । असंख्यप्रदेशात्मक है । लोकाकाशव्यापी है, अनादि-अनंत रुप से विस्तीर्ण है । धर्मास्तिकाय के प्रदेश सांतर नहीं परन्तु निरन्तर 1 1 हैं । १. दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पायइिभंगा हदि दवियलक्खणं एयं ॥ १२ ॥ तुलना - पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि । दो अणभूदं भावं समणा परुर्विति ॥ २. पञ्चास्तिकाया धर्माऽधर्माऽऽकाश- पुद्गलजीवाख्याः । - सम्मति - तर्क — पञ्चास्तिकाय - प्रकरणे - तत्त्वार्थ- टीकां, सिद्धसेनगणि । ३. अस्तयः-प्रदेशाः तेषां कायः = संघातः अस्तिकायः – अनुयोगद्वारसूत्रे, हेमचन्द्रसूरि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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