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________________ ५३६ ज्ञानसार आ सकता । व्यवहार नय कहता है कि 'यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्।' वही परमार्थ-दृष्टि से सत् है कि जो अर्थक्रियाकारी है। सामान्य अर्थक्रियाकारी नहीं है अतएव वह सत् नहीं है। यह नय लोकव्यवहार का अनुसरण करता है। जो लोग मानते हैं उसे यह नय मानता है। जैसे लोग भ्रमर को काला कहते हैं। वास्तव में भ्रमर पाँच रंगोंवाला होता है। फिर भी काला वर्ण स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है, इससे लोग भ्रमर को काला कहते हैं । व्यवहार नय भी भ्रमर को काला कहता है । स्थूल लोकव्यवहार का अनुसरण करनेवाला यह नय द्रव्य-पर्याय के विभाग को अपरमार्थिक मानता है, तब यह व्यवहाराभास कहलाता है । चार्वाक दर्शन इस व्यवहाराभास में से ही उत्पन्न हुआ है। ऋजुसूत्र : प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रो नयविधिः । आचार्य श्री मलयगिरि जो अतीत है वह विनष्ट होने से तथा जो अनागत है वह अनुत्पन्न होने से न तो वे दोनों अर्थक्रिया समर्थ हैं और न प्रमाण के विषय हैं । जो कुछ है वह वर्तमानकालीन वस्तु ही है। भले ही उस वर्तमानकालीन वस्तु के लिंग और वचन भिन्न हों। जैसे अतीत-अनागत वस्तु नहीं है, उसी तरह जो परकीय वस्तु है वह भी परमार्थ से असत् है, क्योंकि वह अपने किसी प्रयोजन की नहीं । ऋजुसूत्र नय निक्षेपों में नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव चारों निक्षेप मानता है। मात्र वर्तमान पर्याय को माननेवाला और सर्वथा द्रव्य का अपलाप करनेवाला 'ऋजुसूत्राभास' नय है । बौद्ध दर्शन ऋजुसूत्राभास में से प्रकट हुआ दर्शन है। शब्द : इस नय का दूसरा नाम 'साम्प्रत' नय है । यह नय भी ऋजुसूत्र की तरह वर्तमानकालीन वस्तु को ही मानता है । अतीत-अनागत वस्तु को नहीं मानता। वर्तमानकालीन परकीय वस्तु को भी नहीं मानता । निक्षेप में केवल भावनिक्षेप को ही मानता है । नाम-स्थापना और द्रव्यइन तीनों निक्षेपों को नहीं मानता । इसी तरह लिंग और वचन के भेद से वस्तु का भेद मानता है, अर्थात् एकवचन
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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