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________________ परिशिष्ट: नयविचार हैं । नैगम : ५३५ श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऋजुसूत्र नय को द्रव्यार्थिक नय का भेद कहते सामान्य- विशेषादि अनेक धर्मों को यह नय मान्यता देता है अर्थात् 'सत्ता' लक्षण महासामान्य, अवान्तर सामान्य - द्रव्यत्व - गुणत्व - कर्मत्व वगैरह तथा समस्त विशेषों को यह नय मानता है । 'सामान्य विशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसाय नैगमः ' पुष्ट : यह नय अपने मन्तव्य को कर हुए कहता है 'यद्यथाऽवभासते तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलतया । ' जो जैसा दिखाई दे उसे वैसा मानना चाहिये । नीले को नीला तथा पीले को पीला । धर्मी और धर्म को एकान्त रुप से भिन्न मानने पर यह नय मिथ्यादृष्टि है अर्थात् नैगमाभास है । न्यायदर्शन तथा वैशेषिक दर्शन धर्मी - धर्म को एकान्त भिन्न मानते हैं । संग्रह : 'सामान्यप्रतिपादनपरः संग्रह नयः ' यह नय कहता है सामान्य ही एक तात्त्विक है, विशेष नहीं । अशेष विशेष का अपलाप करते हुए सामान्य रूप से ही समस्त विश्व को यह नय मानता है । एकान्त' से सत्ता अद्वैत को स्वीकार कर, सफल विशेष का निरसन करनेवाला संग्रहाभास है, इस प्रकार महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं । सभी अद्वैतवादी दर्शन और सांख्य दर्शन सत्ताअद्वैत को ही मानते हैं । व्यवहार : विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनयः -- - जैन तर्कभाषा - श्रीमद् मलयगिरि सामान्य का निरास करते हुए विशेष को ही यह नय मानता है । 'सामान्य' अर्थक्रिया के सामर्थ्य से रहित होने के कारण सकल लोक व्यवहार के मार्ग में नहीं - १. सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान् निराचक्षाणः संग्रहाभासः । - जैन तर्कभाषा -
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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