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ज्ञानसार
तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोण्णपक्खनिरवेक्खा । सम्मइंसणसई सव्वे वि णया ण पावंति ॥२३॥
'जिस प्रकार विविध लक्षणों से युक्त वैडूर्यादि मणि महान् किंमती होने पर भी, अलग-अलग हो वहाँ तक 'रत्नावलि' नाम प्राप्त नहीं कर सकते, उसी तरह नय भी स्वविषय का प्रतिपादन करने में सुनिश्चित होने पर भी, जब तक अन्योन्यनिरपेक्ष प्रतिपादन करे वहाँ तक 'सम्यग्दर्शन' नाम प्राप्त नहीं कर सकते, अर्थात् सुनय नहीं कहलाते । द्रव्यार्थिक नय-पर्यायार्थिक नय :
प्रत्येक वस्तु के मुख्य रुप से दो अंश होते हैं (१) द्रव्य और (२) पर्याय ।
वस्तु को जो द्रव्य रुप से ही जाने वह द्रव्यार्थिक नय और जो वस्तु को पर्याय रूप से ही जाने वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है । मुख्य तो ये दो ही नय हैं । नैगमादि नय इन दोनों के विकल्प हैं। भगवन्त तीर्थंकरदेव के वचनों के मुख्य प्रवक्ता रुप में ये दो नय प्रसिद्ध है ।
'सम्मति तर्क' में कहा है। तित्थयरवयणसंगह विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासि ॥३॥
तीर्थंकर वचन के विषयभूत (अभिधेयभूत) द्रव्य-पर्याय है। उनका संग्रहादि नयों द्वारा जो विस्तार किया जाता है, उनके मूल वक्ता द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं । नैगमादि नय उनके विकल्प हैं; भेद हैं। .
द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयों के मन्तव्यों का स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए 'सम्मति-तर्क' में कहा है :
उप्पज्जंति वियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । दव्वठ्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविणठं ॥२१॥
पर्यायार्थिक नय का मंतव्य है कि सर्व भाव उत्पन्न होते हैं और नाश होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण भाव उत्पाद-विनाश के स्वभाववाले हैं । द्रव्यार्थिक नय कहता है कि सब वस्तुएँ अनुत्पन्न-अविनिष्ट हैं अर्थात् प्रत्येक भाव स्थिर स्वभाववाला है।
___ द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं - (१) नैगम (२) संग्रह और (३) व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं (१) ऋजुसूत्र (२) शब्द (३) समभिरूढ़ (४) एवंभूत ।