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परिशिष्ट : चौदह गुणस्थानक
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विराम प्राप्त करना ।) अर्थात् पापव्यापारों का सर्वथा त्याग नहीं करती है परन्तु कुछ अंश तक त्याग करती है I
देशविरति का प्रभाव :
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यहाँ आत्मा अनेक गुणों से युक्त हो जाती है । जिनेन्द्र - भक्ति, गुरू - उपासना, जीवों पर अनुकम्पा, सुपात्रदान, सत्शास्त्र - श्रवण, बारह व्रतों का पालन, *प्रतिमाधारण...... वगैरह बाह्य तथा आभ्यन्तर धर्म-आराधना से आत्मा का जीवन शोभायमान होता है ।
६. प्रमत्तसंयत गुणस्थानक :
यहाँ अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय नहीं होता । यहाँ 'संज्वलन' कषायों का उदय होता है। उससे निद्रा - विकथादि प्रमाद का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है । इसलिये इस भूमिका में रही हुई आत्मा को 'प्रमत्तसंयत' कहा जाता है ।
'श्री प्रवचन सारोद्धार' ग्रन्थ में 'प्रमत्तसंयत' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है :
'संयच्छति स्म - सर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगुपरमति स्मेति संयतः । प्रमाद्यति स्म - मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतम- प्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदति स्मेति प्रमत्तः, स चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतः ।'
सर्व सावद्ययोगों से जो विराम पाता है, उसे 'संयत' कहते हैं। मोहनीयादि कर्मों के उदय से तथा निद्रादि प्रमााद के योग से संयमयोगों में अतिचार लगाता है, इसलिये उसे प्रमत्त कहते हैं ।
सर्वविरति का प्रभाव :
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आत्मगुणों के विकास की यह एक उच्च भूमिका है । यहाँ आत्मा क्षमाआर्जव - मार्दव- शौच-संयम-त्याग - सत्य-तप- ब्रह्मचर्य - आकिंचन्य, इन दस यतिधर्मों का पालन करती है । अनित्यादि भावनाओं से भावित होकर विषयकषायों को वश में रखती है । सर्व पापों के त्यागरुप पवित्र जीवन जीती है। किसी भी जीव को वह दुःख नहीं देती है ।
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- श्रावक की ११ प्रतिमाओं का वर्णन देखो 'पञ्चाशक' प्रकरण में ।