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________________ ५२८ ज्ञानसार ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक : स्वाभाविकता से या उपदेश से यथोक्त तत्त्वों में जीव को रूचि हो, वह सम्यक्त्व कहलाता है। यथोक्तेषु च तत्त्वेषु रुचिर्जीवस्य जायते । निसर्गादुपदेशाद्वा सम्यक्त्वं हि तदुच्यते ॥ श्री रत्नशेखरसूरि 'सम्यक्त्व' की महत्ता बताते हुए उपाध्यायजी यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' प्रकरण में कहा है : 'कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारः सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ॥ 'आँख में जैसे पुतली, पुष्प में जैसे सुगन्ध, उसी प्रकार सब धर्मकार्यों में 'सम्यक्त्व' सारभूत है। आत्मा की इस अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय नहीं होता है परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है। उसके प्रभाव से आत्मा कोई व्रत-नियम नहीं ले सकती । हालाँकि यथोक्त तत्त्वों की रुचि जरुर होती है। सम्यक्त्व का प्रभाव : सम्यक्त्व का गुण आत्मा में प्रगट होने के बाद प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य, ये पाँच गुण आत्मा में प्रगट हो जाते हैं। कृपा-प्रशम-संवेग-निर्वदास्तिक्य-लक्षणाः । गुणा भवन्ति यच्चित्ते, सःस्यात्सम्यक्त्वभूषितः ॥-श्री रत्नशेखरसूरि यह समकिती आत्मा परमात्मा, सद्गुरु और संघ की सद्भक्ति करता है तथा परमात्मशासन की उन्नति करता है। भले ही उसमें कोई व्रत-नियम न हो । कहा है : देवे गुरौ च संघे च सद्भक्तिं शासनोन्नतिम् । अव्रतोऽपि करोत्येव स्थितस्तुर्ये गुणालये ॥ ५. देशविरति-गुणस्थानक : *'सर्वविरति' गुण का आवारक प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय से यहाँ आत्मा, सर्व सावद्ययोग से कुछ अंश तक विराम पाती है। (देश अंश में, विरति ★ - सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति इति प्रत्याख्यानावरणाः। --प्रवचनसारोद्धार
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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