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________________ ५३० ७. अप्रमत्तसंयत-गुणस्थानक : यहाँ संज्वलन कषायों का उदय मंद हो जाने से निद्रादि प्रमाद का प्रभाव रहता नहीं, इससे आत्मा अप्रमादी- अप्रमत्त, महाव्रती बन जाती है । ज्ञानसार प्रमाद का नाश हो जाने से आत्मा व्रत - शील... आदि गुणों से अलंकृत और ज्ञान-ध्यान की सम्पत्ति से शोभायमान बनती है । ८. * अपूर्वकरण गुणस्थानक : अभिनव पाँच पदार्थों के निर्वर्तन को 'अपूर्वकरण' कहा जाता है । ये पाँच पदार्थ इस प्रकार हैं – (१) स्थितिघात (२) रसघात (३) गुणश्रेणि (४) गुणसंक्रम और (५) अपूर्व स्थितिबन्ध | १. स्तितिघात : ज्ञानावरणीयादि कर्मों की दीर्घ स्थिति का अपवर्तनाकरण से अल्पीकरण । २. रसघात : कर्म परमाणुओं में रही हुई स्निग्धता की प्रचुरता को अपवर्तनाकरण से अल्प करना । यह स्थितिघात और रसघात पहले के गुणस्थानों में रहा जीव भी करता है। परन्तु उन गुणस्थानों में विशुद्धि अल्प होने से स्थितिघात तथा रसघात अल्प करता है । यहाँ विशुद्धि का प्रकर्ष होने से अति विशाल - अपूर्व करता है । ३. गुणश्रेणि: ऐसे कर्मदलिकों कि जिनका क्षय दीर्घकाल में होना है, उन कर्मदलिकों को अपवर्तनाकरण से विशुद्धि के प्रकर्ष द्वारा नीचे लाए, अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त में उदयावलिका के ऊपर, जल्दी क्षय करने के लिये, प्रतिक्षण असंख्य गुणवृद्धि से वह दलिकों की रचना करे । ४. गुणसंक्रम : बन्धती हुई शुभ-अशुभ कर्मप्रकृति में अबध्यमान शुभाशुभ कर्मदलिकों को प्रतिक्षण असंख्य गुणवृद्धि से डालना । ५. अपूर्व स्थितिबन्ध : अशुद्धिवश जीव पहले कर्मों की दीर्घ स्थिति बाँधता था, अब विशुद्धि द्वारा कर्मों की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग में हीन-हीनतरहीनतम बाँधता है । ★ - अपूर्व अभिनवं करणं-स्थितिघात - गुणश्रेणि-गुणसंक्रम स्थितिबन्धानां पञ्चानां पदार्थनां निर्वतनं यस्यासौ अपूर्वकरण: । - प्रवचनसारोद्धारे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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