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ज्ञानसार
में बाह्य सुखों का खयाल तक मन में उठने न पाए। वर्ना 'नमाज पढ़ते, रोजे गले पडे !' वाली कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी। एक तरफ मल नष्ट करने की औषदि का सेवन और उसमें वृद्धि करनेवाली औषधि का सेवन ! फिर तो जो होना होगा, सो होकर ही रहेगा। लेकिन इससे बड़ी मूर्खता और कौन सी हो सकती है ?
अपने मन को स्थिर किये बिना अथवा करने की इच्छा नहीं रखने के उपरान्त सिर्फ धर्मक्रिया करते रहने से अगर आत्मसुख का लाभ न मिले तो इसमें क्रिया का दोष मत निकालो । यदि दोष निकालना है तो अपनी वैषयिक सुखों की अनन्त लालसाओं का, स्पृहा का और अपनी मानसिक अस्थिरता का निकालें ।
स्थिरता वाङ्मनःकायैर्येषामङ्गाङिगतां गता ।
योगिनः समशीलास्ते ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि ॥ ३ ॥ ५ ॥
अर्थ : जिस महापुरुष को स्थिरता, वाणी, मन एवं काया से एकात्मभाव को प्राप्त हुई है, ऐसे महायोगी ग्राम, नगर और अरण्य में, रात-दिन सम स्वभाववाले होते हैं
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विवेचन : जो व्यक्ति मनोहर नगर में निवास करते हों अथवा घने जंगल में, साथ ही जिन्हें नगर के प्रति आसक्ति-लगन नहीं और अरण्य के प्रति उद्वेग / अरुचि नहीं, उन्हें आँखों को चकाचौंध करनेवाला दिन का प्रकाश हो अथवा अमावस की गहरी अंधियारी रात हो, वे सदा-सर्वदा ऐसी दशा में निर्लिप्त भाव से युक्त होते हैं। दिन का उजाला उन्हें हर्षविह्वल करने में असमर्थ होता है और रात का अन्धकार शोकातुर बनाने में ! कारण उनके वाणी - व्यवहार और तनमन में स्थिरता समरस जो हो गयी है । उनके मन में आत्मस्वरूप की ... पूर्णानन्द की... ज्ञानामृत की रमणता, वाणी में पूर्णानन्द की सरिता और काया में पूर्णानन्द की प्रभा प्रगट होती है ।
बाह्य जगत से संबन्धविच्छेद किये बिना और आन्तर जगत के साथ, अन्तर्मन से सम्बन्ध जोडे बिना मन, वचन और काया में स्थिरता का प्रादुर्भाव