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________________ स्थिरता २९ अर्थ : यदि मन में रही महाशल्य रुपी अस्थिरता दूर नहीं की है, (उसे जड़मूल से उखाड़ नहीं फेंका है) तो फिर गुण नहीं करनेवाली क्रियारूप औषधि का क्या दोष ? विवेचन : यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि जब तक हमारे पेट में मल जम गया है, तब तक देवलोक से साक्षात् धन्वंतरी भी उतर कर क्यों न आ जाए, ज्वर उतरने का नाम नहीं लेगा । इसमें भला वैद्य की दवा का क्या दोष है ? क्योंकि पेट में जमे हुए मल को जब तक साफ नहीं करेंगे, तब तक दवा अपना काम नहीं कर पाएगी। जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित श्रावकधर्म और साधुधर्म की अनेकविध क्रियायें अनमोल औषधियाँ हैं । इनके सेवन से असंख्य आत्माओं ने सर्वोत्तम आरोग्य और मानसिक स्वस्थता प्राप्त की है। लेकिन जिन्होंने इसे (आरोग्यआत्म विशुद्धि) प्राप्त किया है, वे सब सांसारिक, भौतिक, पौद्गलिक सुखों की स्पृहा को पहले ही तिलांजलि दे चुके थे। तभी वे आत्मविशुद्धि और अक्षय आरोग्य के धनी बने थे। पौद्गलिक सुखों की स्पृहा, अनादिकाल से आत्मा में जमा मल है। यह निरन्तर चुभनेवाला शल्य नहीं तो और क्या है ? तब सहसा एक प्रश्न मन में कौंध उठता है : “वीतराग देव द्वारा प्रतिपादित धर्मक्रिया रुपी औषधि, क्या पौद्गलिक सुखों की स्पृहा को नष्ट नहीं कर सकती ?" __ अवश्य कर सकती है। एक बार नहीं, सौ बार नष्ट कर सकती है। लेकिन यह तभी सम्भव है, जब जीवात्मा का अपना दृढ़ संकल्प हो कि 'मुझे पौद्गलिक सुखों की स्पृहा का नाश करना है। ऐसी स्थिति में जो धर्मक्रिया की जाए, वह भी सिर्फ वाणी और काया से नहीं, बल्कि अन्तर्मन से की जानी चाहिए। तब पौद्गलिक सुखों की स्पृहा अवश्य दूर होगी और क्रियारुपी औषधि आत्मआरोग्य के संवर्धन में गति प्रदान करेगी। इस तरह एक ओर धर्मक्रियाओं को अंजाम देने के साथ-साथ इस बात की भी पूरी सावधानी बरतनी होगी कि 'मेरी बाह्य प्रौद्गलिक सुखों की स्पृहा में क्या आशातीत कमी हुई है ?' साथ ही पूरा ध्यान रखा जाए कि इस कालावधि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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