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स्थिरता
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नहीं हो सकता । जो मनुष्य अपने परिवार में ही खोया रहता है, संबन्ध बढ़ाता है और स्नेहभाव का आदान-प्रदान करता है, उसे परिवार में से ही प्रेम, सुख, स्नेह और आनन्द की प्राप्ति होती है । उसे सुख - शान्ति और आनन्द की खोज हेतु बाहरी जगत में दूसरे लोगों के पीछे भटकना नहीं पड़ता । अपनी खुशीनाखुशी के लिए उसे दूसरों की कृपा / मेहरबानी पर अवलंबित नहीं रहना पड़ता । फलतः उसे बाह्य जगत की तनिक भी परवाह नहीं होती । मालवनरेश मदनवर्मा एक ऐसा ही व्यक्ति था, जिसे बाह्य जगत की कोई परवाह नहीं थी । वह अपने अन्तःपुर में ही प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियों में पूर्ण रूप से खो गया था, एक रूप हो गया था । उसने किसी से युद्ध नहीं किया और ना ही किसी के साथ लडाई !
इसी तरह काकंदी के धन्यकुमार ने बत्तीस करोड़ सुवर्ण मुद्रा और बत्तीस नव यौवनाओं का मोह त्याग कर आन्तर जगत से नाता जोडा और स्वआत्मस्वरूप में लीन होकर स्वर्गीय सुख प्राप्त किया । उनका तन-मन और वाणी-व्यवहार पूर्णानन्द में सराबोर हो गया । रूखा-सूखा आहार और वैभारगिरि के निर्जन बन का उन पर तिल मात्र भी असर नहीं हुआ । स्थिरता के कारण उन्होंने अक्षय सुख, असीम शान्ति और अपूर्व आनन्द का खजाना सहजता से पा लिया । तब भला उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से झगडने की, लडाई मोल लेने की जरूरत ही क्या थी ? धन्य है ऐसे त्यागी साधु - श्रमणों को ।
स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चेद् दीप्रः संकल्पदीपजैः । तद्विकल्पैरलं धूमैरलं धूमैस्तथाऽऽश्रवैः ॥३॥६॥
अर्थ : यदि स्थिरता रूपी रत्नदीप सदा-सर्वदा देदीप्यमान हो तो भला संकल्प रूपी दीपशिखा से उत्पन्न विकल्प के धूम्रवलय का क्या काम ? ठीक वैसे ही अत्यन्त मलीन ऐसे प्राणातिपात आदिक आश्रवों की भी क्या जरूरत है ?
विवेचन :: " मैं धनवान बनूँ । ऋद्धि-सिद्धियाँ मेरे पाँव छुए ....!" यह है संकल्प दीप ! मिट्टी का दीया ! मिट्टी से बना हुआ !
और नानाविध विचारव्यापार से पैदा हुए : "अमुक मार्केट / बाजार में