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________________ परिशिष्ट : पाँच आचार ५२३ ३. निर्विचिकित्सा : 'साधु मलीन है ।' ऐसी जुगुप्सा नहीं करना । ४. अमूढता : तपस्वी विद्यावन्त कुतीर्थिक की ऋद्धि देखकर चलित नहीं होना । ५. उपबृंहणा : सार्मिक जीवों के दान-शीलादि सद्गुणों की प्रशंसा करके, उनके सद्गुणों की वृद्धि करना । ६. स्थिरीकरण : धर्म से चलचित्त जीवों को हित-मित-पथ्य वचनों के द्वारा पुनः स्थिर करना । ७. वात्सल्य : सार्मिकों की भोजनवस्त्रादि द्वारा भक्ति व सन्मान करना । ८. प्रभावना : धर्मकथा, वादीविजय, दुष्कर तपादि द्वारा जिनप्रवचन का उद्योत करना। (यद्यपि जिनप्रवचन स्वयं शाश्वत् जिनभाषित और सुरासुरों से नमस्कृत होने से उद्योतीत ही है, फिर भी स्वयं के दर्शन की निर्मलता हेतु, खुद के किसी विशेष गुण द्वारा लोगों को प्रवचन की ओर आकर्षित करना ।) ३. चारित्राचार : ____ पाँच समिति (ईर्यासमिति, भाषासमिति, ऐषणासमिति, आदानभंडमत्तनिक्षेपणासमिति और पारिष्ठापनिका समिति) तथा तीन गुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति) द्वारा मन-वचन-काया को भावित रखना । ४. तपाचार : अनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता, इन छ: बाह्य तपों द्वारा आत्मा को तपाना । (यह छः प्रकार का तप बाह्य इसलिए कहा जाता है कि (१) बाह्य शरीर को तपानेवाला है । (२) बाह्य लोक में तपरुप प्रसिद्ध है । (३) कुतीर्थिकों ने स्वमत से सेवन किया है ।) प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यान, इन छ: प्रकार के आभ्यंतर तप से आत्मा को विशुद्ध करना । ५. वीर्याचार : उपरोक्त चार आचारों में मन-वचन-काया का वीर्य (शक्ति) स्फुरित करके सुन्दर धर्मपुरुषार्थ करना। इस प्रकार पंचाचार का निर्मल रुप से पालन करनेवाली आत्मा, मोक्षमार्ग की तरफ प्रगति करती है और अन्त में मोक्ष प्राप्त करती है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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