________________
५२२
ज्ञानसार
क्रियारुप (स्थान-ऊर्ण) और ज्ञानरुप (अर्थ, आलम्बन और रहित) ये योग चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम बिना सम्भव नहीं हो सकते ।
'जो जीव देशचारित्री या सर्वचारित्री नहीं हैं, उन जीवों में योग का मात्र बीज हो सकता है ।' किन्तु यह कथन निश्चय नय का है । व्यवहार नय तो योगबीज में भी योग का उपचार करता है । इससे व्यवहार नय से अपुनर्बंधकादि जीव भी योग के अधिकारी हो सकते हैं ।
८. पाँच आचार
मोक्षमार्ग की आराधना के मुख्य पाँच मार्गों को 'पंचाचार' कहा जाता है । यहाँ ' श्री प्रवचनसारोद्धार' ग्रन्थ के आधार पर उसका संक्षिप्त विवरण दिया जाता है।
१. ज्ञानाचार
१. काल : आगमग्रन्थों के अध्ययन के लिए शास्त्रकारों ने काल-निर्णय किया है, उस समय में ही अध्ययन करना ।
२. विनय : ज्ञानी, ज्ञान के साधन और ज्ञान का विनय करते हुए ज्ञानार्जन
करना ।
३. बहुमान : ज्ञान - ज्ञानी के प्रति चित्त में प्रीति धारण करना ।
४. उपधान : जिन जिन सूत्रों के अध्ययन हेतु शास्त्रकारों ने जो तप करने का विधान बताया है, वह तप करके ही शास्त्र का अध्ययन करना । उससे यथार्थ रुप में सूत्र की शीघ्र धारणा हो जाती है ।
५. अनिह्नवन : अभिमानादिवश या स्वयं की शंका से श्रुतगुरु का या श्रुत का अपलाप नहीं करना ।
६. व्यंजन : अक्षर शब्द- वाक्य का शुद्ध उच्चारण करना ।
७. अर्थ : अक्षरादि से अभिधेय का विचार करना ।
८. ऊभय : व्यंजन- अर्थ में फेरफार किये बिना तथा सम्यक् उपयोग रखकर
पढ़ना ।
२. दर्शनाचार
१. निःशंकित : जिनवचन में संदेह न रखना ।
२. नि:कांक्षित : अन्य मिथ्यादर्शनों की आकांक्षा नहीं करना ।