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ज्ञानसार
९. आयोजिका करण समुद्घात योगनिरोध
'श्री पंचसंग्रह' ग्रन्थ के आधार पर आयोजिका-करण, समुद्घात तथा योगनिरोध का स्पष्टीकरण किया जाता है । १. आयोजिका-करण :
सयोगी केवली गुणस्थान पर यह करण किया जाता है । केवली की दृष्टिरुप मर्यादा से अत्यन्त प्रशस्त मन-वचन-काया के व्यापार को 'आयोजिका करण' कहा जाता है । यह ऐसा विशिष्ट व्यापार होता है कि जिसके बाद में समुद्घात तथा योगनिरोध की क्रियाएं होती हैं ।
कुछ आचार्य इस करण को 'आवर्जितकरण' भी कहते हैं । अर्थात् तथाभव्यत्वरुप परिणाम द्वारा मोक्षगमन की ओर सन्मुख हुई आत्मा का अत्यन्त प्रशस्त योगव्यापार।
कुछ दूसरे आचार्य इसे 'आवश्यककरण' कहते हैं । अर्थात् सब केवलियों को यह 'करण' करना आवश्यक होता है । समुद्घात की क्रिया सभी केवलियों के लिए आवश्यक नहीं होती। २. समुद्घात :
*केवली को वेदनीयादि अघाती कर्म विशेष हों और आयुष्य कम हो तब उन दोनों को बराबर करने के लिए (वेदनीयादि कर्म आयुष्य के साथ ही भोगकर पूर्ण हो जावें उसके लिये) यह समुद्घात की क्रिया की जाती है ।
__ प्रश्न : बहुत काल तक भोगने में आ सके ऐसे वेदनीयादि कर्मों का एकदम नाश करने से 'कृतनाश' दोष नहीं आता ? समाधानः बहुत समय तक फल देने के हेतु निश्चित हुए वेदनीयादि कर्म तथा प्रकार के विशुद्ध अध्यवसायरूप उपक्रम (कर्मक्षय के हेतु) द्वारा जल्दी से भोग लिये जाते हैं । उसमें 'कृतनाश' दोष नहीं आता । हाँ, कर्मों को भोगे बिना ही नाश कर दें तब तो दोष लगे, यहाँ ये कर्म जल्दी से भोग लिये जाते हैं । कर्मों का भोग (अनुभव) दो प्रकार से होता है। (१) प्रदेशोदय द्वारा, (२) रसोदय द्वारा । प्रदेशोदय द्वारा सब कर्म भोगे जाते हैं। रसोदय द्वारा कोई भोगा जाता है और कोई नहीं भी भोगा जाता है । रसोदय द्वारा भोगने पर ही सब कर्मों का
* चेदायुषः स्थितिथूना सकाशाद्वेधकर्मणः । तदा तत्तुल्यतां कर्तुं समुद्घातं करोत्यसौ ॥ -गुणस्थान क्रमारोहे