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ज्ञानसार १. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार :
*पृथक्त्वसहित, वितर्कसहित और विचारसहित प्रथम सुनिर्मल शुक्लध्यान है। यह ध्यान मन-वचन-काया के योगवाले साधु को हो सकता है ।
+पृथक्त्व = अनेकत्वम् । ध्यान को फिरने की विविधता । वितर्क = श्रुतचिंता । चौदपूर्वगत श्रुतज्ञान का चिंतन ।
विचार = संक्रम । परमाणु', आत्मा आदि पदार्थ, इनके वाचक' शब्द और कायिकादियोग, इन तीन में विचरण, संचरण, संक्रमण । २. एकत्व-वितर्क-अविचार
शुक्ल ध्यान के दूसरे प्रकार में • एकत्व • अविचारता • सवितर्कता होती है।
अर्थात यहाँ स्वयं के एक आत्मद्रव्य का अथवा पर्याय का या गुण का निश्चल ध्यान होता है। अर्थ, शब्द और योगों में विचरण नहीं होता है और भावश्रुत के आलम्बन में शुद्ध-आत्मस्वरुप में चिंतन होता रहता है ।
शुक्लध्यान के ये दो भेद आत्मा को उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में चढ़ानेवाले हैं अर्थात् मुख्य रुप से श्रेणी में होते हैं। दूसरे प्रकार के ध्यान के अन्त में आत्मा वीतरागी बनती है । क्षपकश्रेणीवाली ध्यानी आत्मा ज्ञानावरणीयादि कर्मों को खपाकर
★ सवितर्क सविचारं सपृथकत्वमुदाहृतं ।
त्रियोगयोगिनः साधोराद्यं शुक्लं सुनिर्मलम् ॥६०॥ + श्रुतचिन्ता वितर्क: स्यात् विचारः संक्रपो मतः ।
पृथकत्वं स्यादनेकत्व भवत्येतत्रयात्मकम् ॥६१।। -गुणस्थान-क्रमारोहे इस ध्यान में तीन विशिष्टता रही हुई है : १. स्वशुद्ध आत्मानुभूत भावना के आलम्बन से अन्तर्जल्प चलता है।
२. श्रुतोपयोग एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर तथा एक योग से दूसरे योग पर विचार करता है।
३. ध्यान एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर, एक गुण से दूसरे गुण पर और एक पर्याय से दूसरे पर्याय पर संक्रमण करता है।