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परिशिष्ट : ध्यान केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञ बनती है। ३. सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति :
यह ध्यान चिन्तनरुप नहीं है । सर्वज्ञ आत्मा को सब आत्म-प्रत्यक्ष होने से, उसे चिन्तनात्मक ध्यान की आवश्यकता रहती ही नहीं। इस तीसरे प्रकार में मन-वचनकाया के बादर योगों का अवरोध होता है। सूक्ष्म मन-वचन-काया के योगों को अवरुद्ध करनेवाला एक मात्र सूक्ष्म काययोग बाकी रहता है। यह ध्यान आत्मा की एक विशिष्ट प्रकार की अवस्था है और वह अप्रतिपाती तथा अविनाशी है अर्थात् यह अवस्था अवश्य चौथे प्रकार के ध्यानरूप बन जाती है । ४. व्युच्छिन्न क्रिया-अनिवृत्ति : -
यहाँ समग्र योग हमेशा के लिए विराम प्राप्त कर गए होते हैं । विच्छेद प्राप्त कर गये होते हैं । इस अवस्था में अब कभी भी परिवर्तन नहीं होता। यह अवस्थाविशेष ही ध्यान है । 'शैलेशी अवस्था' इस ध्यानरूप है। छास्थ आत्मा का ध्यान :
मन' की स्थिरता छद्मस्थ का ध्यान है। अन्तर्मुहूर्तकालं यच्चित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि तच्छद्मस्थानां ध्यानम् ।
श्री हरिभद्रसूरि, आवश्यक सूत्रे । 'अन्तर्मुहूर्त' काल के लिए एक वस्तु में जो चित्त की एकावस्था, वह छद्मस्थ जीव का ध्यान है। जिन का ध्यान
योग निरोध, यह जिन का ध्यान है । दूसरे का नहीं । काया की स्थिरता, केवली का ध्यान है ।
१. 'छद्मस्थस्य... ध्यानं मनसः स्थैर्यमुच्यते' ॥१०॥
-गुणस्थानक क्रमारोहे। २. योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं नान्येषाम् ।
-श्री हरिभद्रसूरिः, आवश्यक सूत्रे ३. बपुषः स्थैर्य ध्यानं केवलिनो भवेत्॥१०१॥...
___-गुणस्थानक क्रमारोहे
-गुणस्थानक