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परिशिष्ट : ध्यान (१) श्री जिनेश्वरदेव के गुणों का कीर्तन और प्रशंसा करनेवाला । (२) श्री निर्ग्रन्थ मुनिजनों के गुणों का कीर्तन-प्रशंसा करनेवाला । उनका विनय
करनेवाला । उनको वस्त्र-आहारादि का दान देनेवाला । (३) श्रुतज्ञान की प्राप्ति करने में निरत । प्राप्त श्रुतज्ञान से आत्मा को भावित करने
के लक्षवाला । (४) शील-सदाचार के पालन में तत्पर । (५) इन्द्रियसंयम, मनःसंयम करने में लीन ।
ऐसी आत्मा धर्मध्यानी बन सकती है। श्री प्रशमरति ग्रन्थ में बताया गया है कि वास्तविक धर्मध्यान प्राप्त हुए बाद ही आत्मा वैरागी बनती है अर्थात् उस आत्मा में वैराग्य की ज्योत प्रज्वलित होती है। 'धर्मध्यानमुपगतो वैराग्यमाप्नुयाद् योग्यम्'। वाचिक ध्यान :
सामान्यतः आम विचार ऐसा है कि 'ध्यान' मानसिक ही होता है। परन्तु श्री आवश्यक सूत्र में 'वाचिक ध्यान' भी बताया गया है।
एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसी न वसव्वा । इय वेयालियवक्कस्स भासओ वाइगं झाणं ॥
'मुझे इस प्रकार की वाणी बोलनी चाहिये, ऐसी नहीं बोलनी चाहिये।' इस प्रकार विचारपूर्वक बोलनेवाला वक्ता 'वाचिक-ध्यानी' है। ध्यान-काल :
ध्यान के लिए उचित काल भी वह है कि जिस समय मन-वचन-काया के योग स्वस्थ हों । ध्यान के लिए दिवस-रात के समय का नियमन नहीं है।
'कालोऽपि स एव ध्यानोचितः यत्र काले मनोयोगादिस्वास्थ्य प्रधान प्राप्नोति, नैव च दिवसनिशावेलादिनियमनं ध्यायिनो भणितम् ।'
-श्री हरिभद्रसूरि । आवश्यक सूत्रे । ४. शुक्लध्यान :
शुक्लध्यान के चार प्रकार है । वे 'शुक्लध्यान के चार पाया' के रूप में प्रसिद्ध