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ज्ञानसार
जन्तुवत्सल तारक जिनेश्वरभगवन्त के प्रति परम प्रीति उत्पन्न होनी चाहिये । अनुष्ठान विशिष्ट प्रयत्नपूर्वक करने में आवे, अर्थात् जिस समय करना हो उसी समय किया जाय। भले ही दूसरे सैकड़ों काम बिगडते हों ।
एक वस्तु के प्रति दृढ़ प्रीति जगने के बाद, फिर उसके लिए जीव क्या नहीं करता ? किसका त्याग नहीं करता ? उपर्युक्त हकीकत 'श्री योगविशिका' में दर्शायी गई है । 'यत्रानुष्ठाने १. प्रयत्नातिशयोऽस्ति, २. परमा च प्रीतिरूत्पद्यते, ३. शेषत्यागेन च यत्क्रियते तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ।' २. भक्ति अनुष्ठान :
भक्ति-अनुष्ठान में भी ऊपर की ही तीन वस्तुएँ होती हैं किन्तु अन्तर आलम्बनीय को लेकर पड़ता है । भक्ति-अनुष्ठान में आलम्बनीय में विशिष्ट पूज्यभाव की बुद्धि जाग्रत होती है, उससे प्रवृत्ति विशुद्धतर बनती है।
पूज्य उपाध्यायजी ने प्रीति और भक्ति के भेद को बताते हुए पत्नी और माता का दृष्टान्त दिया है। मनुष्य में पत्नी के प्रति प्रीति होती है और माता के प्रति भक्ति होती है । दोनों के प्रति कर्तव्य समान होते हुए भी माता के प्रति पूज्यभाव की बुद्धि होने से उसके प्रति का कर्तव्य उच्च माना जाता है।
अर्थात् अनुष्ठान के प्रति विशेष गौरव जाग्रत हो, उसके प्रति महान् सद्भाव उल्लसित हो तब वह अनुष्ठान भक्तिअनुष्ठान कहा जाता है । महायोगी श्री आनन्दघनजी ने प्रथम जिनेश्वर की स्तवना- .
'ऋषम जिनेश्वर प्रीतम माहरो और न चाहुँ कंत...
इस प्रकार की है। उसे हम प्रीति अनुष्ठान में गिन सकते हैं । कारण कि उसमें योगीराज ने अपनी चेतना में पत्नीपन का आरोप किया है और परमात्मा में स्वामीपन की कल्पना की है । स्तवना में प्रीतिरस की प्रचुरता दृष्टिगोचर होती है। ३. वचनानुष्ठान :
शास्त्रार्थप्रतिसंघानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्तिः।-योगविंशिका
१. अत्यन्तवल्लभा खलु पत्नी तद्वद्धिता च जननीति।
तुल्यमपि कृत्यमनयोजतिं स्यात् प्रीतिभक्तिगतम् ॥-योगविंशिका २. गौरवविशेषयोगाद् बुद्धिमतो यद् विशुद्धतरयोगम्।
क्रिययेतरतुल्यमपि ज्ञेयं तद्भक्त्यनुष्ठानम् ।। -दशम-षोडषके