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परिशिष्ट : चतुर्विध सदनुष्ठान
५११ उस शत्रु पर द्वेष ! दोनों पर समान दृष्टि ! दोनों के शुद्ध आत्मद्रव्य पर ही दृष्टि !
श्री उपाध्यायजी ने इस 'समता' के मुक्तकण्ठ से गीत गाये हैं ! ५. वृत्तिसंक्षय योग : .
निस्तरंग महोदधि समान आत्मा की वृत्तियाँ दो प्रकार से दृष्टि गोचर होती है; (१) विकल्परूप, (२) परिस्पंदरूप । ये दोनों प्रकार की वृत्तियाँ आत्मा की स्वाभाविक नहीं है परन्तु अन्य संयोगजन्य हैं। तथाविध मनोद्रव्य के संयोग से विकल्परूप वृत्तियाँ जाग्रत होती है। शरीर से परिस्पन्दरूप वृत्तियाँ होती हैं।
जब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तब विकल्परूप वृत्ति का संक्षय हो जाता है। ऐसा क्षय हो जाता है कि पुनः अनंतकाल के लिए आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध ही न हो। 'अयोगी केवली' अवस्था में परिस्पंदरुप वृत्तियों का भी विनाश हो जाता है।
इसका नाम है वृत्तिसंक्षययोग । इस योग का फल है केवलज्ञान और मोक्षप्राप्ति ! अतोऽपि केवलज्ञानं शैलेशीसम्परिग्रहः । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा सदानन्दविधायिनी ॥६६७॥ -योगबिन्दुः
४. चतुर्विध सदनुष्ठान
सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र के गुणों की वृद्धि जिस क्रिया द्वारा होती है उसे सदनुष्ठान कहा जाता है । सत्क्रिया कहें अथवा सदनुष्ठान कहें, दोनों समान हैं ।
___ इस सदनुष्ठान के चार प्रकार 'श्री षोडषक' ग्रन्थ में श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने बताये हैं। उसी प्रकार 'योगविशिका' ग्रन्थ की टीका में पूज्य उपाध्यायजी ने भी चार अनुष्ठानों का विशद वर्णन किया है। १. प्रीति अनुष्ठान :
आत्महितकर अनुष्ठान के प्रति, अनुष्ठान बतानेवाले सद्गुरु के प्रति और सर्व
८. देखो : अध्यात्मसार-समताधिकारे। ★ मानसिक विचार • शारीरिक क्रियाएँ + यत्रादरोऽस्ति परमः प्रीतिश्च हितोदया भवति कर्तः। शेषत्यागेन करोति यच्च तत् प्रीत्यनुष्ठानम् ॥–दशम-षोडशके