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________________ ५१० ज्ञानसार कर्मो के बन्ध की परम्परा का विच्छेद हो जाता है । ४. समतायोग : अनादिकालीन तथ्यहीन वासनाओं के द्वारा होनेवाले संकल्पों से जगत् के जड़चेतन पदार्थों में जीव इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करता है । इष्ट में सुख मानता है, अनिष्ट में दुःख मानता है। समतायोगी महात्मा जगत के जड़-चेतन पदार्थों पर एक दिव्य दृष्टि डालता है ! न तो उसको कोई इष्ट लगता है और न अनिष्ट ! वह परामर्श करता है : 'तानेवार्थान् द्विषतः तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा । प्रशमरति "जिन पदार्थों के प्रति जीव एक बार द्वेष करता है, उन्हीं पदार्थों के प्रति वह राग करता है। 'निश्चयनय' से पदार्थ में कोई इष्टता नहीं है, कोई अनिष्टता नहीं है। वह तो वासनावासित जीव की भ्रमित कल्पना मात्र है। "प्रियाप्रियत्वयोर्याथै व्यवहारस्य कल्पना ।' -अध्यात्मसारे प्रियाप्रियत्व की कल्पना 'व्यवहार नय' की है। निश्चय से न तो कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय ! "विकल्पकल्पितं तस्माद् द्वयमेतन्न तात्विकम् ।' -अध्यात्मसारे विकल्पशिल्पी द्वारा बनाये गये ईष्ट-अनिष्टों के महल तात्त्विक नहीं, सत्य नहीं, हकीकत नहीं । इस विवेकज्ञानवाला समतायोगी जगत के सर्व पदार्थों में से इष्टानिष्ट की कल्पना को दूरकर समतारस में निमग्न बन जाता है। समता-शचि का स्वामीनाथ योगीन्द्र... समता-शचि के उत्संग में रसलीन बनकर ब्रह्मानन्द का अनुभव करता है। न ही वह अपनी दिव्य शक्ति का उपयोग करता है और न वह इस कारण से समता-रानी के साथ को छोड़ता है। इस परिस्थिति में उसका एक महान् कार्य सिद्ध होता है । केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चारित्र... आदि को घेरकर रहे हुए कुकर्मों का क्षय हो जाता है ! अपेक्षातन्तुविच्छेदः ! अपेक्षा तो कर्मबन्ध का मूल है, वह मूल उखड़ जाता है। इस समतायोगी के गले में कोई भक्त आकर पुष्पमाला या चंदन का लेपकर जाय... कोई शत्रु आकर कुल्हाड़े का घावकर जाय... न तो उस भक्त पर राग और न
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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