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________________ परिशिष्ट : ध्यान ५१३ पंच महाव्रतधारी साधु इस अनुष्ठान की उपासना कर सकता है । प्रत्येक काल में और प्रत्येक क्षेत्र में साधु... मुनि... श्रमण ... शास्त्र की आज्ञाओं के मर्म को समझकर जो उचित प्रवृत्ति करे वह 'वचनानुष्ठान' कहलाता है। श्री ' षोडशक' में भी इसी प्रकार वचनानुष्ठान बातलाया है । 'वचनात्मिका प्रवृत्तिः सर्वत्रौचित्ययोगतो या तु । वचनानुष्ठानमिदं चारित्रवतो नियोगेन ॥ ४. असंगानुष्ठान : दीर्घकालपर्यन्त जिनवचन के लक्ष से अनुष्ठान करनेवाले महात्मा के जीवन में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना ऐसी आत्मसात् हो जाती है, कि पीछे से उस महात्मा को यह विचारना नहीं पड़ता कि 'यह क्रिया जिनवचनानुसार है या नहीं ?' जिस प्रकार चंदन में सुवास एकी भूत होती है उसी प्रकार ज्ञानादि की उपासना उस महात्मा में एक रस बन जाती है, तब वह 'असंगानुष्ठान' कहलाता है । यह अनुष्ठान 'जिनकल्पी ' आदि विशिष्ट महापुरुषों के जीवन में हो सकता है । ३ ५. ध्यान 'ध्यान' के विषय में प्रथम सर्वसाधारण व्याख्या का निरूपण करके उसके भेद-प्रभेद पर परामर्श करेंगे । ' ध्यानविचार' ग्रन्थ में चिन्ता' - भावनापूर्वक स्थिर अध्यवसाय को 'ध्यान' कहा है। श्री आवश्यकसूत्र - प्रतिक्रमण अध्ययन में 'ध्यातिर्ध्यानम् कालतः अन्तर्मुहुर्तमात्रम्' । इस प्रकार ध्यान का सातत्य अन्तर्मुहुर्त बताये गये है । श्री आवश्यकसूत्र - प्रति अ० में ध्यान के चार भेद बताये गये हैं । (१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म, (४) शुक्ल 'श्री ध्यानविचार' में इन चारों प्रकारों में से तीन प्रकारों को दो भागों में विभाजित किया है और शुक्लध्यान को 'परमध्यान' कहा है । ३. यत्त्वभ्यासातिशयात् सात्मीभूतमिव चेष्टयते सद्भिः । - तदसङ्गानुष्ठानं भवति त्वेतत्तदावेधात् ॥ - दशम षोड़शके - ध्यानविचारे १. चिन्ता - भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायो ध्यानम् । -
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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