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________________ ५०६ ज्ञानसार 'श्री पंचाशक' ग्रन्थ में याकिनीमहत्तरासूनु हरिभद्राचार्य ने शुक्ल पाक्षिक श्रावक का वर्णन किया है : परलोयहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो। अइतिव्वकम्मविगमा सुक्को सो सावगो एत्थ ॥२॥-प्रथम पंचाशक 'सम्यक् प्रकार से उपयोगपूर्वक जो श्रावक परलोक हितकारी जिन वचन का श्रवण करता है और अति तीव्र पाप कर्म जिसके क्षीण हो गये हैं, वह शुक्लपाक्षिक श्रावक कहलाता है। २. ग्रन्थि भेद जिस किसी भी प्रकार से 'तथाभव्यत्व' के परिपाक से जीवात्मा 'यथाप्रवृत्तिकरण' द्वारा आयुष्य कर्म के अतिरिक्त ज्ञानावरणीयादि सातों कर्मों की 'पृथक पल्योपम" के संख्याता भाग न्यून एक क्रोडाक्रोड सागरोपम प्रमाण स्थिति कर देता है। __ जब कर्मों की इस प्रकार से मर्यादित कालस्थिति हो जाती है तब जीव के समक्ष एक अभिन्न ग्रन्थि आती है । तीव्र राग-द्वेष के परिणामस्वरुप यह ग्रन्थि होती है। उस ग्रन्थि का सर्जन अनादि कर्म-परिणाम द्वारा हुआ होता है । ___ अभव्यजीव यथाप्रवृत्तिकरण से ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की दीर्घस्थिति का क्षय करके अनन्त बार इस 'ग्रन्थि के द्वार पर आते हैं, परन्तु ग्रन्थि की भयंकरता देखकर ग्रन्थि को भेदने की कल्पना भी नहीं कर सकते... उसे भेदने का पुरुषार्थ करना तो दूर रहा ! वहीं से वापस लौटता है-पुन: वह संक्लेश में फँस जाता है ! संक्लेश द्वारा पुनः कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बाँधता है । भवभ्रमण में चला जाता है। . भव्य जीव भी अनन्तबार इस प्रकार से ग्रन्थि प्रदेश के द्वार पर, आकर ही घबड़ाते हुए वापिस लौट जाते हैं । परन्तु जब इस 'भव्य' महात्मा को 'अपूर्वकरण' की परमसिद्धि प्राप्त हो जाती है, कि जिस अपूर्वकरण की परमविशुद्धि को श्री 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रन्थ के टीकाकार ने 'निसिताकुण्ठ-कुठारधारा' की उपमा दी है। वह तीक्ष्ण कुल्हाडी की धार के समान परम विशुद्धि द्वारा समुल्लसित दुर्निवार वीर्यवाला १. गुरुतरगिरिसरित् - प्रवाहवाह्यमानोपलघोलनाकल्पेन अध्यवसायविशेषरूपेण अनाभोगनिर्वतितेन यथाप्रवृत्तिकरणेन। - प्रवचनसारोद्धारे २. आयुर्वनि ज्ञानावरणादिकर्माणि सर्वाण्यपि पृथक्पल्योपमसंख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति । - प्रवचनसारोद्धारे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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