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परिशिष्ट : अध्यात्मादि योग महात्मा ग्रन्थि को भेदकर परमनिवृत्ति के सुख का रसास्वाद कर लेता है।
___ अब यह महात्मा किस प्रकार से राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि को भेद डालता है, उसे एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं।
कुछ पथिक यात्रा के हेतु निकले । एक गहन वन में से गुजरते हुए उन्होंने दूर से डाकुओं को देखा । डाकुओं के रौद्र स्वरूप को देखकर कुछ पथिक तो वहीं से पीछे भाग गये । कुछ पथिकों को डाकुओं ने पकड़ लिया। जबकि शेष शूरवीर पथिकों ने डाकुओं को भूशरण कर आगे प्रयाण किया । वन को पार कर तीर्थस्थान पर जा पहुंचे।
मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बाँधनेवाले वे भागनेवाले पथिकों जैसे हैं। जो डाकुओं द्वारा पकड़े गये थे वे ग्रन्थि देश में रहे हुए जीव हैं । जो डाकुओं को परास्त कर तीर्थस्थान पर पहुँचे वे ग्रन्थि को भेदकर समकित को प्राप्त करनेवाले हैं।
'सम्यक्त्वस्तव' प्रकरणकार इस प्रकार से ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया बताते हैं । अर्धपुद्गलपरावर्त काल जीव का संसारकाल बाकी है, जो जीव भव्य हैं, पर्याप्त-संज्ञीपंचेन्द्रिय हैं, वे जीव अपूर्वकरणरुपी मुद्गर के प्रहार से ग्रन्थिभेद करके, अन्तर्मुहूर्त में ही 'अनिवृत्तिकरण' करते हैं और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं ।
३. अध्यात्मादि योग - जैनदर्शन का योगमार्ग कितना स्पष्ट, सचोट, तर्कसंगत तथा कार्यसाधक है, उसकी सूक्ष्म दृष्टि से तथा गंभीर हृदय से शोध करने की आवश्यकता है। यहाँ क्रम से अध्यात्मयोग, भावनायोग, ध्यानयोग, समतायोग और वृत्तिसंक्षययोग का विवेचन किया जाता है।
१. अध्यात्मयोग
'योग' शब्द की परिभाषा 'मोक्षेण योजनाद् योगः ।' इस प्रकार से करने में आई है। अर्थात् जिसके द्वारा जीवात्मा मोक्षदशा प्राप्त करे, वह योग है । इस योग की, साधना की दृष्टि से उत्तरोत्तर विकास की पाँच भूमिकाएँ अनंतज्ञानी परमपुरुषों ने
३. 'सम्यक्त्वस्तव' प्रकरणे ४. मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० क्रोडाकोड़ी सागरोपम है।