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परिशिष्ट : कृष्ण पक्ष - शुक्ल पक्ष
'इह द्वये जीवाः तद्यथा - कृष्णपाक्षिकाः शुक्लपाक्षिकाश्च । तत्र येषां किञ्चद्नार्द्धपुद्गल परावर्तः
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संसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः ।
इसी बात को पूज्य उपाध्यायजी ने 'ज्ञानसार' के 'टब्बे' में अन्य शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा पुष्ट किया है ।
जेसिं अवढ्ढपुग्गलपरियो सेसओ य संसारो ।
ते सुक्कपक्खिया खलु अवरे पुण कण्हपक्खिया ॥
उपरोक्त शास्त्रकारों की मान्यताओं की अपेक्षा श्री " दशाश्रुतस्कंध - सूत्र" के चूर्णीकार की मान्यता भिन्न है । उन्होंने इस प्रकार प्रतिपादन किया है:
'जो अकिरियावादी सो भवितो अभविउ व नियमा किण्हपक्खिओ, किरियावादी नियमा भव्वओ नियमा सुक्कपक्खिओ । अंतोपुग्गलपरियट्टस्स नियमा सिज्झिहिति । सम्मद्दिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा होज्ज ।'
'जो जीव अक्रियावादी है, भले ही वह भव्य अथवा अभव्य हो, वह अवश्य कृष्णपाक्षिक है। जबकि क्रियावादी भव्य आत्मा निश्चय ही शुक्लपाक्षिक है और वह एक पुद्गल - परावर्तकाल में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है । वर्तमान में वह जीव भले ही सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि हो ।'
चूर्णीकार की मान्यतानुसार चरमावर्त काल शुक्लपक्ष है; यह मान्यता तर्कसम्मत भी लगती है । शुक्लपक्ष के प्रारम्भ में जिस प्रकार अल्पकालीन चन्द्रोदय होता है, उसी तरह चरमावर्तकाल में आने पर जीव के आत्म- आकाश में कतिपय गुणों का चन्द्रोदय होता है । पूजनीय आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'योगदृष्टिसमुच्चय' नामक ग्रन्थ में चरमावर्तकालीन जीव को भद्रमूर्ति - महात्मा कहा है। उन्होंने इस भद्रमूर्ति महात्मा के तीन विशेष गुण बताए हैं 1
दुःखितेषु दयात्यन्त - मद्वेषो गुणवत्सु च ।
औचित्यासेवनं चैव सर्वत्रैवाविशेषतः ॥ ३२॥
दुःखी जीवों के प्रति अत्यन्त करूणा, गुणी जीवों के प्रति राग और सर्वत्र अविशेषरूप से औचित्य का पालन, इन तीन गुणों से सुशोभित भद्रमूर्ति माहात्मा को 'शुक्लपाक्षिक' कहने में दशाश्रुतस्कंध के चूर्णीकार महापुरुष की मान्यता योग्य लगती प्रतीत होती है । 'तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति । तत्त्व तो केवली भगवान जाने ।