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उपसंहार
५०१ के शीतल जल का छिडकाव किया गया है ! नगर के विशाल राजमार्ग विवेकरूपी पुष्पमालाएँ, तोरणों से सुशोभित हैं और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अध्यात्मामृत से छलकते काम-कुम्भ रखे गये हैं !
कैसा भव्य और रमणीय नगर है ! आँखें थकती नहीं उसका मनोहर और मांगलिक स्वरुप देख-देख कर ! ऐसे विलक्षण नगर में हर कोई (जीव) प्रवेश नहीं कर सकता, बल्कि बहुत थोड़े कुछ लोग ही प्रवेश कर सकते हैं ! यदि इन थोड़े लोगों में हमें प्रवेश मिल गया, तो समझ लिजीए कि हमारा तो 'सर्व मंगल मांगल्यम्' हो गया !
पूर्णानन्दी आत्मा ही 'ज्ञानसार' नगर में प्रवेश पा सकता है ! पूर्णता के आनन्द-हेतु छटपटाता उद्विग्न जीव ही हमेशा ऐसे नगर की खोज में रहता है । इस तरह ग्रन्थकार महर्षि हमें 'ज्ञानसार' नगर का अनूठा दर्शन कराते हैं... इस में प्रवेश कर हम भी कृतकृत्य बनें ।।
गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः प्रौढिं प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः । तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशोः श्रीमन्यायविशारदस्य कृतिनामेषा कृतिः प्रीतये ॥
अर्थ : सद्गुरु श्री विजयदेवसूरि के गुणसमूह से पवित्र एवं महान् गच्छ में जितविजय नाम के अत्यन्त विद्वान् और महिमाशाली पुरुष हुए । उनके गुरुभाई नयविजय पण्डित के सुशिष्य श्रीमद् न्यायविशारद (यशोविजयजी उपाध्याय) द्वारा रचित यह कृति, महाभाग्यशाली पुरुषों की प्रीति के लिए सिद्ध हो ।
विवेचन : ग्रन्थकार अपनी गुरु-परम्परा का वर्णन करते हैं !
श्री विजयदेवसूरि के गुण-समूह से अलंकृत विशाल पवित्र गच्छ में प्रकांड पण्डित जीतविजयजी नामक अत्यन्त प्रतिभा के धनी महात्मा पुरुष हुए। उनके गुरु भाई श्री नयविजयजी नामक मुनिश्रेष्ठ थे ।
उन्हीं श्री नयविजयजी गुरुदेव के, ग्रन्थकार उपाध्याय श्री यशोविजयजी शिष्य थे ।