SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०० ज्ञानसार हर जगह, हर गली और हाट-हवेली में सर्वत्र लगाये तोरणों को देखो। ये सब विवेक से तोरण हैं और यह रहा लग्न-मंडप ! यह हृदय का विशाल मंडप है ! यह प्रकाश-पुंज सा देदीप्यमान हो जगमगा रहा है ! यहाँ मधुर कण्ठ और राग-रागिणी से युक्त लग्न-गीतों की चित्ताकर्षक लहरियाँ वातावरण में व्याप्त हैं ! उसमें ३२ मंगल गीत हैं और आतमराम कैसा आनन्दातिरेक से डोल रहा है। — 'ज्ञानसार' ग्रन्थ-रचना का तो एक बहाना है। इसके माध्यम से पूर्णानन्दी आत्मा ने चारित्ररूपी लक्ष्मी के साथ लग्न... महोत्सव का सुंदर, सुखद आयोजन किया है । देवी-देवता तक इर्ष्या करें ऐसा उसका अद्भुत सौभाग्य है ! इस प्रसंग पर ग्रन्थकार पूज्य उपाध्यायजी महाराज फरतमाते हैं कि इस ग्रन्थ-रचना के महोत्सव में मैंने चारित्र स्वरुप साक्षात् लक्ष्मी के साथ पाणिग्रहण किया है ! सचमुच यह महोत्सव, हर किसीको विस्मित और आश्चर्य चकित कर दें, ऐसा अद्भुत है ! भावस्तोमपवित्रगोमयरसैः लिप्तैव भूः सर्वतः, संसिक्ता समतोदकैरथ पथि न्यस्ता विवेकस्रजः । अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशचक्रेऽत्र शास्त्रे पुरः । पूर्णानन्दधने पुरे प्रविशति स्वीयं कृतं मंगलम् ॥ अर्थ : प्रस्तुत शास्त्र में भाव के समूहस्वरुप गोबर से भूमि पोती हुई ही है और समभावरुपी शीतल जल के छिडकाव से युक्त है । अत्र-तत्र (मार्ग में) विवेकरुपी पुष्पमालायें सुशोभित है ! अग्रभाग में अध्यात्मरुप अमृत से छलकाता काम-कुम्भ रखा हुआ है और इस तरह पूर्णानन्द से भरपूर आत्मा नगरप्रवेश करता है, तब अपना स्वयं का महामंगल किया है। विवेचन : इस 'ज्ञानसार नगर' में जिस पूर्णानन्दी आत्मा ने प्रवेश किया, उसका कल्याण हो गया ! इस नगर की भूमि पवित्र भावों के गोबर से पोती हुई है ! सर्वत्र समभाव
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy