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उपसंहार
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का ग्रन्थकार ने प्रयास किया है, साथ ही वे यह भी बताते हैं कि इनमें से कितनों का मन ज्ञानसार के रंग से तर-बतर है :
कइयों का मन शब्दादि विषयों की स्पृहा एवं भोगोपभोग से पीडित है । कई जीव कुतर्क और कुमति के सर्पों से डसे हुए हैं । कुतर्क - सर्पों के तीव्र - विष के कारण मूच्छित हो गये हैं !
कई लोग अपने आपको वैरागी के रूप में बताते हैं । लेकिन यह एक प्रकार का हडकवा ही है ! वास्तव में एकाध पागल कुत्ते जैसी उनकी अवस्था है
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जबकि कित्येक मोह-अज्ञान के अन्धेरे कूप में गिरे हुए हैं ! उनकी दृष्टि कुए के बाहर भला, कहाँ से जा सकती है ?
हाँ, कुछ लोग, जो संख्या में अल्प हैं, ऐसे अवश्य हैं, जिनके मन पर विकार का बोझ नहीं है ! ऐसी सर्वोत्तम आत्मा ही ज्ञानसार का आश्रय ग्रहण करती है !
जातोद्रेकविवेकतोरणततौ धावल्यमातन्वति,
हृद्गृहे समयोचितः प्रसरति स्फीतश्च गीतध्वनिः । पूर्णानन्दघनस्य किं सहजया तद्भाग्यभंग्याऽभवनैतद् ग्रन्थमिषात् करग्रहमहश्चित्रं चरित्रश्रियः
अर्थ : जहाँ अधिकाधिक प्रमाण में विवेकरूपी तोरणमाला बाँधी गई हैं और जहाँ उज्वलता को विस्तृत करते हृदयरूपी भवन में समयानुकूल मधुर गीत की उच्च ध्वनि प्रसरित है ! वहाँ पूर्णानन्द से ओतप्रोत आत्मा का, उसके स्वाभाविक सौभाग्य की रचना से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के बहाने क्या चारित्ररुप लक्ष्मी के आश्चर्यकारक पाणिग्रहण - महोत्सव का शुभारंभ नहीं हुआ ?
विवेचन : क्या तुमने पूर्णानन्दी आत्मा का चारित्र - लक्ष्मी के साथ लग्नोत्सव कभी देखा है ? यहाँ ग्रन्थकार हमें वह लग्नोत्सव बताते हैं ! ध्यान से उसका निरीक्षण करो, देखो
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