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ज्ञानसार
ज्ञानविहीन क्रिया जुगनु की तरह है ।
कहाँ तो सूर्य का प्रकाश और कहाँ जुगनु का प्रकाश ? असंख्य जुगनुओं का समूह भी सूर्य - प्रकाश की तुलना में नहिंवत ही है । इस तरह ज्ञानशून्य क्रियाएँ कितनी भी की जाएँ तो भी सूर्यसदृश तेजस्वी ज्ञान की तुलना में कोई महत्त्व नहीं रखती ।
जबकि, भले ही क्रियाशून्य ज्ञान हो, ( ज्ञानयुक्त क्रिया उसके जीवन में नहीं है ।) फिर भी ज्ञान का जो अनोखा प्रकाश है, वह तो सदैव बरकरार ही रहेगा । अरे, सूर्य भले ही बादलों से घिरा हो, लेकिन संसार की क्रियाएँ उसके प्रकाश में चलती रहती हैं। जबकि जुगनु के प्रकाश में तुम कोई भी कार्य नहीं कर सकते ।
साथ ही क्रियारहित ज्ञान का अर्थ क्रिया- निरपेक्ष ज्ञान न लगाना । अर्थात् क्रिया के प्रति अरुचि अथवा उसकी अवहेलना नहीं, परन्तु क्रियाओं की उपादेयता का स्वीकार करनेवाला ज्ञान ! ज्ञानयुक्त क्रिया करते हुए क्रिया छूट जाए, लेकिन उसका भाव अन्त तक बरकरार रहे - ऐसा ज्ञान !
ज्ञानविहीन क्रिया के खद्योत बनकर ही संतुष्ट रहनेवाले और आजीवन ज्ञान की उपेक्षा करनेवालों को ग्रन्थकार के इन वचनों पर अवश्य गहरायी से चिंतन-मनन करना चाहिए और ज्ञानोपासक बनकर ज्ञान - सूर्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये ।
चारित्रं विरतिः पूर्णा ज्ञानस्योत्कर्ष एव हि । ज्ञानाद्वैतनये दृष्टिर्देया तद्योगसिद्धये ॥८॥
अर्थ : सम्पूर्ण विरतिरुप चारित्र वास्तव में ज्ञान का अतिशय ही है ! अतः योग-सिद्धि के लिए केवल ज्ञान - नय में दृष्टिपात करने जैसा है ।
विवेचन : ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट अवस्था यानी चारित्र !
ज्ञान - निमग्नता यानी चारित्र !
पूर्ण विरतिरुप चारित्र क्या है ? वह ज्ञान का ही एक विशिष्ट अतिशय