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________________ उपसंहार ४९७ I है । ज्ञानाद्वैत में दृष्टि प्रस्थापित करनी चाहिए । अर्थात् ज्ञानाद्वैत में ही लीन हो जाना चाहिए । यदि तुम्हें योग-सिद्धि करना है, आत्मा का परम विशुद्ध स्वरूप प्राप्त करना है तो ! ज्ञान और क्रिया के द्वैत का त्याग करो । क्योंकि द्वैत में अशान्ति है ! जबकि अद्वैत में परम आनन्द है और है असीम शान्ति । ज्ञानाद्वैत का मतलब ही आत्माद्वैत । अतः आत्मा के अद्वैत में अपनी दृष्टि केन्द्रित करो । सजग रहो कि दृष्टि कहीं अन्यत्र भटक न जाए । ज्ञानसार का उपसंहार करते हुए उपाध्याय श्री यशोविजयजी ज्ञानाद्वैत का शिखर बताते हैं ! ज्ञान - क्रिया के द्वैत में से बाहर निकलने का, मुक्त होने का भारपूर्वक विधान करते हैं ! ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट परिणति यही पूर्ण चारित्र है । उक्त चारित्र के सुहाने सपनों का चाहक जीव ज्ञानाद्वैत में तल्लीन हो जाए, तभी पूर्णता प्राप्त कर सकता है । निश्चयनय के दिव्य - प्रकाश को चारों दिशाओं में प्रसारित करनेवाले उपाध्यायजी महाराज ने ज्ञान में ही साध्य, साधन और सिद्धि निर्देशित कर ज्ञानमय बन जाने का आदेश दिया है ! साथ ही क्रिया-मार्ग की जडता को झटककर ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा दी है । 'ज्ञानद्वैत में लीनता हो !' सिद्धि सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्धावहे लब्धवांश्चिद्दीपोऽयमुदारसारमहसा दीपोत्सवे पर्वणि ! एतद् भावनभावपावनमनश्चञ्चच्चमत्कारिणां, तैस्तैर्दीपशतैः सुनिश्चयमतैर्नित्योऽस्तु दीपोत्सवः ! अर्थ : श्रेष्ठ एवं सारभूत परम ज्योतिर्मय प्रस्तुत ज्ञान - दीप, इन्द्र की राजधानी की स्पर्धा करनेवाले सिद्धपुर नगर में दीपावली पर्व के सुअवसर पर समाप्त हुआ ! यह ग्रन्थ भावनाओं के रहस्य से परिपूर्ण एवं पवित्र हुए मन में उत्पन्न विविध चमत्कारयुक्त जीवों को, वह वह उत्तम निश्चयमतरुपी शत-शत दीपकों से निरंतर उनके लिए दीपावली का महोत्सव हो !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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