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उपसंहार
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करती ! (सुवर्ण-घट के खण्डित हो जाने पर भी सुवर्ण तो उसमें रहता ही है ।) विवेचन : एक सुवर्ण-घट है,
मानो कि वह खण्डित हो गया, तो भी उसमें सोना तो रहता ही है ! सोना कहीं नहीं जाता । इस तरह सुवर्ण- घट की उपमा से विद्वान् ग्रन्थकार हमें ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्त्व समझाते हैं ।
ज्ञानयुक्त क्रिया सुवर्ण-घट के समान है । समझ लो कि क्रिया खंडित हो गयी, उसमें किसी प्रकार का विक्षेप आ गया, फिर भी सुवर्ण - समान ज्ञान तो शेष रहेगा ही । क्रिया का भाव तो बना रहेगा ही, ज्ञानयुक्त क्रिया के माध्यम से जिन कर्मों का क्षय किया, दुबारा उनके उदय होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मतलब, कर्म-बन्धन होना असम्भव है । अन्तः कोडाकोडी सागरोपम से अधिक स्थितिवाले कर्मो का बन्धन नहीं होगा ।
सुवर्ण-घट समान ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्त्व बौद्धदर्शन आदि भी स्वीकार करते हैं । ज्ञानहीन क्रिया का विधान-समर्थन विश्व का कोई दर्शन नहीं करता । अरे भई, ज्ञानविहीन यानी भावशून्य क्रिया से क्या मतलब ?
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जो क्रिया की जाए उसके अनुरूप भाव होना नितान्त आवश्यक है । भाव से क्रिया सजीव और प्राणवान बनती है, अमूल्य बनती है। जबकि ज्ञानशून्य क्रिया मिट्टी के घडे जैसी है। एक बार घडा फूट जाए, फिर उसका कोई उपयोग नहीं और ना ही उसकी कोई किंमत होती है । अतः हे महानुभाव, तुम अपनी धर्म - क्रियाओं को ज्ञानयुक्त बनाओ, भावयुक्त बनाओ । कर्मक्षय का लक्ष्य रख कर प्रत्येक धर्म- क्रिया करते रहो ।
क्रियाशून्यं च यज्ज्ञानं ज्ञानशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं भानुखद्योतयोरिव ॥७॥
अर्थ : जो ज्ञान क्रिया रहित है और जो क्रिया ज्ञानरहित है, इन दोनों में अन्तर सूर्य और खद्योत (जुगनु) की तरह है ।
विवेचन : क्रियाशून्य ज्ञान सूर्य की तरह है !