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ज्ञानसार
अर्थ : क्रिया द्वारा किया गया क्लेश का नाश मेंढक के शरीर के चूर्ण की तरह है । लेकिन 'ज्ञानसार' द्वारा किया गया क्लेश-नाश मेंढक के जले हुए चूर्ण की तरह है ।
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विवेचन : जिस तरह मेंढक के शरीर का चूर्ण हो जाने के उपरान्त भी वृष्टि होते ही उसमें से नये मेंढकों का जन्म होता है, उत्पत्ति होती हैं, ठीक उसी तरह धार्मिक-क्रियाओं की वजह से जिस क्लेश का - अशुभ कर्मों का क्षय होता है, वे कर्म पुनः निमित्त मिलते ही पैदा हो जाते है !
यदि मेंढक के शरीर के चूर्ण को जला दिया जाए तो फिर कितनी ही घनघोर बारिश उस पर क्यों न पड़े, दुबारा मेंढक पैदा होने का कभी सवाल ही नहीं उठता ! ठीक उसी तरह ज्ञानाग्नि से भस्मीभूत हुए कर्म कभी पैदा नहीं होते !
तात्पर्य यही है कि ज्ञान के माध्यम से सदा कर्म-क्षय करते रहो ! शुद्ध क्षयोपशम-भाव से कर्म-क्षय करो । दुबारा कर्मबन्धन का भय नहीं रहेगा । ज्ञानसार की यही तो महत्ता है ! ज्ञानसार द्वारा किया गया कर्म-क्षय ही वास्तव में सार्थक
है ।
हाँ, सिर्फ क्रिया-कांड के माध्यम से कर्म-क्षय करने में श्रद्धा रखनेवालों के लिए यह तथ्य अवश्य विचारणीय है ! भले ही वे अशुभ कर्मों का क्षय करते हों, लेकिन आश्रवों की वृष्टि होते ही पुनः अशुभ कर्म पनप उठेंगे ! अतः ज्ञान के माध्यम से कर्मक्षय करना सीखो ।
अरे भाई, तुम अपने ज्ञानानन्द में सदा-सर्वदा मग्न रहो ! ज्ञान की मौजमस्ती में खोये रहो इधर कर्म-क्षय निरन्तर होता ही रहेगा । तुम नाहक चिंता न करो कि 'मेरा कर्म - क्षय हो रहा है अथवा नहीं ?' इसके बजाय निरन्तर निर्भय होकर ज्ञानानन्द के अथाह जलाशय में सदा गोते लगाते रहो ।
ज्ञानपूतां परेऽप्याहुः क्रियां हेमघटोपमाम् ।
युक्तं तदपि तद्भावं न यद् भग्नाऽपि सोज्झति ॥ ६ ॥
अर्थ : दूसरे दार्शनिक भी ज्ञान से पवित्र क्रिया को सुवर्ण- घट कहते
हैं, वह भी योग्य है । क्योंकि खण्डित क्रिया भी, क्रिया- भाव का त्याग नहीं
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