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उपसंहार
४९३ अचिन्त्या काऽपि साधूनां ज्ञानसारगरिष्ठता ।। गतिर्ययोर्ध्वमेव स्याद् अधःपातः कदापि न ॥४॥
अर्थ : ज्ञानसार का भार मुनिराज के लिए कुछ समझ में नहीं आये वैसा है । उससे उसकी उर्ध्वगति ही सम्भव है, अधोगति नहीं ।
विवेचन : 'ज्ञानसार' अवश्य भार है ! जो समझ में न आ सके ऐसा कल्पनातीत भार है ! इसे वहन करनेवाला भारी बनता है ! साथ ही 'ज्ञानसार के बोझ से बोझिल बना महामुनि जब अधोगपति के बजाय उर्ध्वगति करता है तब हर किसी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता !
_ 'भारी मनुष्य उर्ध्वगामी बन सकता है !!' ज्ञानसार का भार इस तरह अचिन्त्य है, समझ में न आए ऐसा है ! उपाध्यायजी महाराज ज्ञानसार के प्रभाव की व्याख्या इस तरह सरल भाषा में कैसी सुगमता से करते हैं ! .
। 'ज्ञानसार से भारी बनो । ज्ञानसार का वजन बढाते रहो ! फलतः तुम्हारी उर्ध्वगति ही होगी ! अध:पतन कभी नहीं होगा !' ग्रन्थकार ने बड़ी ही लाक्षणिक शैली में यह उपदेश दिया है ! वे दृढता के साथ आश्वस्त करते हैं कि ज्ञानसार प्राप्त श्रमणश्रेष्ठ की उन्नति ही होती है । अधःपतन कभी सम्भव नहीं । अतः ज्ञानसार प्राप्त कर तुम निर्भय बन जाओ, दुर्गति का भय छोड दो, पतन का डर हमेशा के लिए अपने मन से निकाल दो ! ज्ञानसार के अचिन्त्य प्रभाव से तुम प्रगति के पथ पर निरन्तर बढते ही चले जाओगे।
. हालाँकि यह सृष्टि का शाश्वत् नियम है कि भारी वस्तु सदैव नीचे ही जाती है, ऊँची कभी नहीं जाती ! लेकिन यहाँ उसका अद्भुत विरोधाभास प्रदर्शित किया गया है : 'भारी होने के उपरान्त भी आत्मा ऊपर उठती है, ऊँची जाती है !' अतः यह विधान करना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ज्ञानसार की गरिष्ठता से भारी बना मुनि सद्गति मोक्षपद का अधिकारी बनता है ।
क्लेशक्षयो हि मण्डूकचूर्णतुल्यः क्रियाकृतः । दग्धतच्चूर्णसदृशो ज्ञानसारकृतः पुनः ॥५॥