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________________ ४९२ ज्ञानसार "अन्योऽहं स्वजनात् परिजनाद् विभवात् शरीरकाच्चेति ! यस्य नियता मतिरियं न बाधते तस्य शोककलिः ॥" इस अन्यत्व भावना को दृढ करनेवाला महात्मा सदैव निर्विकार, निराबाध चारित्र का पालन करता हुआ मोक्ष-गति पाता है। चित्तमाद्रीकृतं ज्ञानसारसारस्वतोमिभिः ! नाजोत्ति तीव्रमोहाग्निप्लोषशोषकदर्थनाम् ॥३॥ अर्थ : ज्ञानसाररूप सरस्वती की तरंगावलि से कोमल बना मन, प्रखर मोहरूपी अग्नि के दाह से, शोष की पीड़ा से पीड़ित नहीं होता । विवेचन : ज्ञानसार की पवित्र-पावन सरयु सरस्वती ! सरस्वती की पवित्र धारा में निष्प्राण हड्डियाँ और राख विसर्जन करने से सद्गति नहीं मिलती है, स्वर्ग-प्राप्ति नहीं होती है ! उसके निर्मल पवित्र प्रवाह में हमारे मन को विसर्जित करना होगा! अतः 'ज्ञानसार' की पतित पावनी सरस्वती में बार-बार अपने मनको डूबोकर उसे कोमल और कमनीय होने दो ! सरस्वती के पावन स्पर्श से उसे आर्द्र और स्निग्ध होने दो ! फिर भले ही मोह-दावानल सम्पूर्ण शक्ति से प्रज्वलित हो और उसकी लपटें मनको स्पर्श करें, उसको कोई पीडा नहीं, ना ही किसी प्रकार की वेदना। अरे, पानी से भीगे कपड़ों को कभी आग जला सकी है? तब फिर सरस्वती की तरंगों से प्लावित मनको मोह-दावानल भला कैसे दग्ध कर सकता है ? तभी तो कहा है 'ज्ञानसार' ग्रन्थ पवित्र सरस्वती है। 'ज्ञानसार' की वाणीतरंगों से मनको सदैव तर-बतर होने दो ! मोह-वासनाओं का ज्वालामुखी उसको जला नहीं सकेगा। मोह-दावानल से बचने के लिए पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने निरंतर 'ज्ञानसार' के रसामृत का आस्वाद लेने का उपदेश दिया है। क्योंकि समस्त दुःख, दर्द वेदना और व्याधिओं का मूल मोह है । मोह के प्रभाव से मन मुक्त होते ही किसी प्रकार की अशान्ति, वेदना और यातनाएँ नहीं रहेंगी।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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