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________________ उपसंहार ४९१ को पाना यानी चारित्रमय बन जाना है। यदि निर्वाण के लक्ष्य को लेकर ३२ विषयों का चिंतन-मनन किया जाय तो आत्मा की अपूर्व उन्नति हो सकती है। कर्म-बन्धन से आत्मा मुक्ति पा सकता है। आत्म-सुख का अनुभव करने लगता है और इसी लक्ष्य को निश्चित कर यशोविजयजी महाराज ने उपर्युक्त ३२ विषयों का अनूठा संकलन कर, तत्त्वनिर्णय किया है। निर्विकारं निराबाधं ज्ञानसारमुयेयुषाम् ! विनिवृत्तपराशानां मोक्षोऽत्रैव महात्मनाम् ॥२॥ अर्थ : विकाररहित और पीडारहित ज्ञानसार को प्राप्त करनेवाला और परायी आशा से निवृत्त हुए आत्माओं की मुक्ति इसी भव में है । विवेचन : ज्ञानसार ! किसी प्रकार का कोई विकार नहीं, ना ही पीडा है... । ऐसे अद्भुत ज्ञानसार की जिसे प्राप्ति हो गयी है, उसे भला, पर-पदार्थ की आशा-अपेक्षा क्या सम्भव है ? विकारी और क्लेशयुक्त पर-पदार्थों की इच्छा होना क्या सम्भव है ? ज्ञान के सारभूत चारित्र में निर्विकार अवस्था है, साथ ही निराबाध भी। फलतः ऐसे महात्मा कर्म-बन्धनों से परे होते हैं। क्योंकि कर्म-बन्धन का मूल है विकार । पर-पदार्थों की चाह से विकारों का जन्म होता है । चारित्रवन्त आत्मा को कर्म-बन्धन नहीं होता है और इसीका नाम मोक्ष है। पूर्वकर्म का उदय भले ही हो, लेकिन नये कर्म-बन्धन नहीं होते । कर्मोदय के समय ज्ञानसार के कारण नये कर्म-बन्धन की सम्भावना नहीं होती ! नये कर्मबन्धन न हों, यही मोक्ष है। पर-पदार्थों की स्पृहा के कारण उत्पन्न विकार और विकारों से पैदा होती पीडा, जिस महात्मा को स्पर्श तक न करें, उन्हें इसी भव में मोक्षसुख का अनुभव होता है, अर्थात् पराशाओं से निवृत्त यह मोक्ष प्राप्ति के लिए महत्त्वपूर्ण शर्त बन जाती है और शिवाय आत्मा, सभी पर है !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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