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ज्ञानसार
★ पच्चीसवाँ अष्टक है परिग्रहत्याग का ।
बाह्य अन्तरंग परिग्रह के त्यागी महात्मा के चरण में देवी-देवता तक नतमस्तक हो उठते हैं । ऐसे मुनिवर ही शुद्ध अनुभव कर सकते हैं, अतः
★ छब्बीसवाँ अष्टक है अनुभव का ।
अतींद्रिय परम ब्रह्म का अनुभव करनेवाला महात्मा न जाने कैसा महान् योगी बन जाता है ! अतः ... ★ सत्ताइसवाँ अष्टक है योग का ।
. मोक्ष के साथ गठबन्धन करानेवाले योगों का आराधक योगी और स्थानवर्णादि योग एवं प्रीति-भक्ति आदि अनुष्ठानों में रत योगी, सदैव ज्ञानयज्ञ करने के लिये सुयोग्य होता है, अतः
* अठ्ठाइसवाँ अष्टक है नियाग का !
ज्ञानयज्ञ में आसक्ति ! समस्त आधि-व्याधि और उपाधि-रहित शुद्ध ज्ञान ही ब्रह्म-यज्ञ है। ब्रह्म में ही सर्वस्व समर्पण करनेवाला मुनि भाव-पूजा की सतह को स्पर्श कर सकता है, अतः ।
★ उन्तीसवाँ अष्टक है भावपूजा का ।
आतमदेव के नौ अंगो को ब्रह्मचर्य की नौ बाडों द्वारा पूजन-अर्चन करनेवाला मुनि अभेद-उपासना रुप भावपूजा में लीन हो जाता है। ऐसी आत्मा ही ध्यानस्थ बनती है, अतः
★ तीसवाँ अष्टक है ध्यान का !
ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता प्रस्थापित करनेवाला मुनि श्रेष्ठ कभी दुःखी नहीं होता । निर्मल अन्तरात्मा में परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है । फलस्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है... और तपमार्ग का पथिक बनता है, अतः
* इकतीसवाँ अष्टक है तप का ।