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________________ ४८८ ज्ञानसार ★ पच्चीसवाँ अष्टक है परिग्रहत्याग का । बाह्य अन्तरंग परिग्रह के त्यागी महात्मा के चरण में देवी-देवता तक नतमस्तक हो उठते हैं । ऐसे मुनिवर ही शुद्ध अनुभव कर सकते हैं, अतः ★ छब्बीसवाँ अष्टक है अनुभव का । अतींद्रिय परम ब्रह्म का अनुभव करनेवाला महात्मा न जाने कैसा महान् योगी बन जाता है ! अतः ... ★ सत्ताइसवाँ अष्टक है योग का । . मोक्ष के साथ गठबन्धन करानेवाले योगों का आराधक योगी और स्थानवर्णादि योग एवं प्रीति-भक्ति आदि अनुष्ठानों में रत योगी, सदैव ज्ञानयज्ञ करने के लिये सुयोग्य होता है, अतः * अठ्ठाइसवाँ अष्टक है नियाग का ! ज्ञानयज्ञ में आसक्ति ! समस्त आधि-व्याधि और उपाधि-रहित शुद्ध ज्ञान ही ब्रह्म-यज्ञ है। ब्रह्म में ही सर्वस्व समर्पण करनेवाला मुनि भाव-पूजा की सतह को स्पर्श कर सकता है, अतः । ★ उन्तीसवाँ अष्टक है भावपूजा का । आतमदेव के नौ अंगो को ब्रह्मचर्य की नौ बाडों द्वारा पूजन-अर्चन करनेवाला मुनि अभेद-उपासना रुप भावपूजा में लीन हो जाता है। ऐसी आत्मा ही ध्यानस्थ बनती है, अतः ★ तीसवाँ अष्टक है ध्यान का ! ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता प्रस्थापित करनेवाला मुनि श्रेष्ठ कभी दुःखी नहीं होता । निर्मल अन्तरात्मा में परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है । फलस्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है... और तपमार्ग का पथिक बनता है, अतः * इकतीसवाँ अष्टक है तप का ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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