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विषयक्रम-निर्देश
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★ उन्नीसवाँ अष्टक है तत्त्वदृष्टि का । ___ तत्त्वदृष्टि प्राय: रुपी को नहीं, बल्कि अरुपी को परिलक्षित करती है। अरुपी को निहार, उसमें ओत-प्रोत हो जाती है, समरस होती है ! ऐसी आत्मा सर्वसमृद्धि का स्वयं में ही अहसास करती है, अतः
* बीसवाँ अष्टक है सर्व समृद्धि का ।
इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, शेषनाग, महादेव, कृष्ण आदि सभी विभूतिओं की समृद्धि... वैभव... ऐश्वर्य का प्रतिबिम्ब वह स्वयं की आत्मा में ही निहारता है। ऐसा आत्मदर्शन निरंतर टिक सके, अत: मुनि प्रायः कर्म-विपाक का चिंतन करता है, इसलिए
★ इक्कीसवाँ अष्टक है कर्म-विपाक का ।
कर्मों के फल का विचार । शुभाशुभ कर्मों के उदय का विचार करनेवाली आत्मा अपनी ही आत्म-समृद्धि में संतुष्ट होती है, संसार महोदधि से नित्य भयभीत होती है, अतः
★ बाईसवाँ अष्टक है भवोद्वेग का ।
संसार के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ आत्मा चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होती है । फलतः लोकसंज्ञा का उसे स्पर्श तक नहीं होता, अतः
★ तेईसवाँ अष्टक है लोकसंज्ञा-परित्याग का ।
लोकसंज्ञा की महानदी में मुनि बह न जाए, बल्कि वह तो प्रवाह की विपरीत दिशा में भी गतिशील महापराक्रमी होता है ! लोकोत्तर मार्ग पर चलता हुआ मुनि शास्त्रदृष्टि से युक्त होता है, अतः
★ चौबीसवाँ अष्टक है शास्त्र का !
उसकी दृष्टि ही शास्त्र है ! 'आगमचक्खु साहू' श्रमण के नेत्र ही शास्त्र हैं ! ऐसा मुनि भी कहीं परिग्रही हो सकता है ? वह तो सदा-सर्वदा अपरिग्रही होता है, अतः