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ज्ञानसार
नि:स्पृह महात्मा के लिए समस्त संसार तृणसमान होता है ! ना कोई भय, ना ही कोई इच्छा । फिर उसे क्या बोलने का होता है ? संकल्प-विकल्प भी कैसे हो सकता है ! ऐसी आत्मा ही मौन धारण कर सकती है, अतः __ * तेरहवाँ अष्टक है मौन का ।
नहीं बोलनेरुप मौन तो एकेन्द्रिय जीव भी पालता है ! लेकिन यह तो विचारों का मौन ! अशुभ-अपवित्र विचार सम्बंधित मौन पालन करना है ! जो आत्मा ऐसा मौन धारण कर सकती है, वही विद्यासम्पन्न बन सकती है, इसलिए
* चौदहवाँ अष्टक है विद्या का ।
अविद्या की त्यागी और विद्या की अर्थी आत्मा, आत्मा को ही सदैव अविनाशी रूप में निहारती है ! ऐसी आत्मा विवेकसम्पन्न बनती है, अतः
★ पन्द्रहवाँ अष्टक है विवेक का !
दूध और पानी की तरह परस्पर ओत-प्रोत कर्म और जीव को मुनिरुपी राजहंस अलग करता है ! ऐसी भेदज्ञानी आत्मा ही मध्यस्थ बन सकती है ! अतः
★ सोलहवाँ अष्टक है मध्यस्थता का ।
कुतर्क और राग-द्वेष का त्याग हुआ और अन्तरात्म-भाव में रमणता शुरू हुई कि आत्मा मध्यस्थ और निर्भय होती है, अत:
★ सत्रहवाँ अष्टक है निर्भयता का ! ___ भय की भ्रान्ति नहीं ! जो आत्म-स्वभाव के अद्वैत में लीन हो गया, वह निर्भयता के वास्तविक आनन्द का मजा लूटता है ! उसे स्व-प्रशंसा करना पसंद नहीं, तभी तो ____★ अठारहवाँ अष्टक है अनात्मशंसा का ।
जो व्यक्ति स्व-गुणों से परिपूर्ण है उसे स्व-प्रशंसा पसंद ही नहीं ! अपना गुणानुवाद सुनने की इच्छा तक नहीं होती, अतः ज्ञानानन्द की मस्ती में परपर्याय का उत्कर्ष क्या साधना.? वह अलौकिक तत्त्वदृष्टि का स्वामी बनता है, अत: