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________________ विषयक्रम - निर्देश जीव शान्त होता है और कषायों का शमन होता है अतः ★ छठवाँ अष्टक है शम का । किसी प्रकार का विकल्प नहीं और निरंतर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आलम्बन ! ऐसी आत्मा इन्द्रियविजेता बन सकती है अतः ४८५ ★ सातवाँ अष्टक है इन्द्रिय - विजय का । विषयों के बन्धनों से आत्मा को सदैव कैद रखती इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त करनेवाले महामुनि ही सच्चे त्यागी बन सकते हैं, इसलिये ★ आठवाँ अष्टक है त्याग का । जब स्वजन, धन और इन्द्रियों के विषयों से मुक्त बना मुनि निर्भय और कलह रहित बनता है और अहंकार तथा ममत्व से नाता तोड देता है, तब उसमें शास्त्रवचन का अनुसरण करने की अदम्य शक्ति प्रस्फुटित होती है, अतः ★ नौवाँ अष्टक है क्रिया का ! प्रीतिपूर्वक क्रिया, जिनाज्ञानुसार एवं निःसंगता - पूर्वक क्रिया करनेवाला महात्मा परम तृप्ति का अनुभव करता है-इसलिए ★ दसवाँ अष्टक है तृप्ति का ! स्व-गुणों में तृप्ति ! शान्तरस की तृप्ति ! ध्यानामृत की डकार ! 'भिक्षुरेकः सुखी लोके ज्ञानतृप्तो निरंजन: ' भिक्षु... श्रमण .... मुनि ही ज्ञानतृप्त बन, परम सुख का अनुभव करता है ! ऐसी ही आत्मा सदैव निर्लेप रह सकती है, अतः ग्यारहवाँ अष्टक है निर्लेपता का ! सारा संसार भले ही पाप-पंक का शिकार बन जाए, उसमें लिप्त हो जाए, लेकिन ज्ञानसिद्ध महात्मा उससे सदा अलिप्त-निर्लेप रहता है ! ऐसी ही आत्मा नि:स्पृह बन सकती है, अतः ★ बारहवाँ अष्टक है निःस्पृहता का
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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