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विषयक्रम-निर्देश
४८९ बाह्य और आभ्यन्तर तप की आराधना से वह सर्व-कर्मक्षय रूपी मोक्षपद की प्राप्ति की दिशा में गतिमान होता है ! उसकी सभी दृष्टि से विशुद्धि होती है ! ऐसी आत्मा परम प्रशम-परम मध्यस्थ्य भाव को धारण करती है, अत:
★ बत्तीसवाँ अष्टक है सर्वनयाश्रय का !
सर्व नयों का स्वीकार करता है । कोई पक्षपात नहीं, ना ही भ्रान्ति ! परमानन्द से भरपूर ऐसी सर्वोत्कृष्ट आत्मभूमिका प्राप्त कर वह सदा के लिए कृतकृत्य बन जाता है ।
__आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने के लिये यह कैसा अपूर्व मार्ग है ! अब तो लक्ष्य चाहिये ! हमारे दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है ! आत्मा की ऐसी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने का भगीरथ पुरुषार्थ चाहिये । ३२ विषयों को हृदयस्थ कर और उस पर सतत चिंतन-मनन कर, उस दिशा में प्रयाण का संकल्प करना
*आत्म-तत्त्व की श्रद्धा, आत्म-तत्त्व की प्रीति और आत्म-तत्त्व के उत्थान की उत्कट भावना... क्या सिद्धि नहीं कर सकती ? कायरता अशक्ति
और आलस्य को दूर कर अदम्य उत्साह के साथ अपूर्व स्फूति से सिद्धि के मार्ग पर प्रस्थान कर दो । इसके बिना दुःख, दर्द क्लेश और संताप का अन्त आनेवाला नहीं है । ध्यान रखो, जन्ममृत्यु का चक्र रुकनेवाला नहीं है, वह तो निरंतर निर्बाध गति से चलनेवाला ही है और कर्मों की श्रृंखलाएँ यों सहज में टूटनेवाली नहीं है, अतः मानव-जीवन का आत्मतत्त्व के उत्थान के लिये ही उपयोग करें।
* तमेवैकं जानिथ आत्मनमन्या वाची किमूचथामृतस्यैव सेतुः। -- मुण्डकोपनिषद्