SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानसार रास्ते में रुक जाता है, ठिठक जाता है, वापिस लौट आता है । अतः स्थिर बनना अत्यन्त आवश्यक है । यही स्थिरता तुम्हें खजाने की ओर ले जाएगी और दिलाएगी भी ! इसीलिए ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि बाह्य पौद्गलिक पदार्थों के पीछे पागल बने मन को रोको । मन के रुकते ही वाणी और काया को रुकते देर नहीं लगेगी । मन को अपने आप में केन्द्रित करने के लिए उसे आत्मा की सर्वोत्तम, अक्षय, अनन्त समृद्धि का दर्शन कराओ । ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोभविक्षोभकुर्चकैः । अम्लद्रव्यादिवास्थैर्यादिति मत्वा स्थिरो भव ॥३॥२॥ अर्थ : ज्ञानरूपी दूध अस्थिरता रुपी खट्टे पदार्थ से (लोभ के विकारों से) बिगड़ जाता है । ऐसा जानकर स्थिर बन । . .विवेचन : कई सरल प्रकृति के लोग यह कहते पाये जाते हैं कि हम आत्मज्ञान प्राप्त करें और बाह्य पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ भी करें। ऐसे पथ-भ्रष्ट सरल चित्तवाले लोगों को परम श्रद्धेय यशोविजयजी महाराज उनके मार्ग में रहे अवरोध, बाधाएँ और बुराईयों के प्रति सजग कर सावधान करते हैं। यदि दूध से छलछलाते बर्तन में खट्टा पदार्थ डाल दिया जाए, तो उसे फटते देर नहीं लगेगी । वह बिगड जाएगा और उसका मूल स्वरूप कायम नहीं रहेगा । फलतः उसको पीनेवाला नाक-मौं सिकोडेगा । पीने के लिये तैयार नहीं होगा और पी भी जाए, तो उसे किसी प्रकार का संतोष, बल और समाधान नहीं मिलेगा। बल्कि रोग का भोग बन बीमार हो जाएगा, नानाविध व्याधियों का शिकार हो जाएगा। यही दशा ज्ञानामृत से छलछलाते आत्मभाजन में पौद्गलिक सुखों की स्पृहा के मिल जाने से होती है । परिणाम यह होता है कि वह ज्ञान स्वरूप में न रहकर उसमें विकार की भर पड जाती है और तब वह आत्मोन्नति अथवा आत्म-विशुद्धि नहीं कर सकता अपितु अपने क्रिया-कर्मों से आत्मा को विमोहित कर पतन के गहरे गड्ढे में धकेल देता है ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy