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स्थिरता
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बर्तन दूध से भरा हुआ हो और उसमें थोड़ी सी खट्टाई भी मिला दी जाए, तब भी वह बिगड जाता है। मनुष्य के किसी काम का नहीं रहता । जबकि हमारे पास तो दूध कम है और खट्टाई का प्रमाण अधिक है। फिर तो दूध बिगडते भला कौन सी देर लगेगी ? ठीक इसी तरह हमारे पास ज्ञान की मात्रा अल्प है और पौद्गलिक सुखों की स्पृहा अधिक है । उसका कोई पारावार नहीं है । तब भला वह ज्ञान, ज्ञानरूप में रह सकता है क्या? इसीलिये यदि ज्ञानामृत को, अपने आत्मज्ञान को सुरक्षित रखना हो, अन्त तक उसे उसके मूल स्वरूप में कायम रखना हो तो निःसन्देह हमें पौद्गलिक आकर्षण / आसक्ति का त्याग करना ही होगा । हमें चंचलता, विक्षिप्तता और अस्थिरता को तिलांजलि देनी ही होगी। क्योंकि वह खट्टे पदार्थ जैसी घातक, मारक और बाधक है।
मथुरा के आचार्य मंगु के पास ज्ञानामृत से भरा कुम्भ था। लेकिन उसमें रसनेन्द्रिय से तरबतर विषयों की स्पृहा की खटाई मिल गयी । परिणामतः उसमें अस्थिरता और चंचलता की भर पड़ गयी । ज्ञान, विष में परिवर्तित हो गया और आचार्यश्री को मोक्ष-प्राप्ति के बजाय दुर्गति की राह में भटकना पड़ा । यदि तुम्हें इस मार्ग में नहीं जाना है तो 'स्थिर बनो, दृढ़ बनो ।'
अस्थिरे हृदये चित्रा, वाड्नेत्राकारगोपना । पुंश्चल्या इव कल्याणकारिणी न प्रकीर्तिता ॥३॥३॥
अर्थ : यदि चित्त सर्वत्र भटकता है, तो विचित्र वाणी, नेत्र, आकृति और वेषादि का गोपन करने रुप क्रिया (धर्मक्रियायें) कुटनी स्त्री की तरह कल्याणकारिणी नहीं कही गयी हैं । - विवेचन : जिस नारी के मन में पराये पुरुष के लिए प्रेम हो, स्नेहभाव भरा पड़ा हो और ऊपरी तौर पर वह पतिव्रता होने की डींग मारती है, पतिभक्ति प्रदर्शित करती है, दिल को लुभानेवाली बातें करती है और पति-सेवा का मिथ्या प्रदर्शन करती है, उसे कुलट । छिनाल नारी कहा जाता है। परिणाम स्वरूप उसकी मीठी वाणी, सेवा-भाव और भक्ति, उसका कल्याण नहीं कर सकती, ना ही जीवन सफल बनाती है । -- .