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________________ २५ विवेचन : तुम्हारा तन और मन क्या चंचल बन गया है ? तुम अपने आप में क्या अगणित चिंताओ और सोच-विचारों में फंस गये हो ? तब भला क्यों इधर-उधर भटक रहे हो ? गाँव-गाँव और दर-दर क्यों फिर रहे हो ? पर्वत गुफायें और घने जंगलों की खाक क्यों छान रहे हो ? निष्प्रयोजन भटकाव अच्छा नहीं । उससे तुम्हें कौन सा गडा खजाना मिल जानेवाला है ? वह आज तक किसीको मिला नहीं और भविष्य में भी मिलनेवाला नहीं है । यह शाश्वत् संत्य है । यदि तुम्हें विश्वास न हो तो तुम्हारे साथ निरन्तर भटकती तुम जैसी अन्य आत्माओं को पूछ देखो ! वे भी तुम्हारी तरह ही संतप्त और अशान्त हैं । अपने आप से पूछो कि इस कदर भटकने से कहीं खजाना मिला है सो मिल जाएगा ? और फिर तुम जिसे खजाना समझ बैठे हो, वह खजाना नहीं, असीम सुख और परम शान्ति देनेवाली अपूर्व सम्पदा नहीं, बल्कि एक छलावा है, मृगजल है ! स्थिरता I हम तुम्हें रोक नहीं रहे हैं, साथ ही यह भी नहीं कहते कि तुम खजाने की खोज न करो । उसे पाने के लिए प्रयत्नशील न बनो। अपितु हम यह कहना चाहते हैं कि वहाँ खोजो, जहाँ सचमुच खजाना है । उसके होने की पूरी सम्भावना है । नाहक चिन्ता न करो, शोक से विह्वल न बनो, हताश न हो। हम तुम्हें खजाना बताते हैं । तुम एकाग्र मन से उसे खोजने का प्रयत्न करो। अधीर और अस्थिर होने से काम नहीं चलेगा, बल्कि पूर्ण मनोयोग से प्रयास करो । खजाना मिलते देर नहीं लगेगी और वह भी ऐसा मिलेगा कि जिससे तुम्हारा तन-मन आनन्द से थिरक उठेगा । तुम्हारे सारे संताप और दुःख क्षण भर में खत्म हो जाएँगे । फलतः तुम्हें परम शान्ति का अनुभव होगा । और इसके लिए एक ही उपाय है, 'स्थिर बनो' ! आत्म-निग्रही बनो ! मतलब, अपने मन में रही पौद्गलिक पदार्थों की स्पृहा को नष्ट करना / बाहर निकाल फेंकना और जीवात्मा के ज्ञानादि गुणों की तरफ गतिशील होना । बाह्य धन-धान्यादि-सम्पत्ति और कीर्ति हासिल करने के लिए लगातार दौडधूप करने के 'बावजूद जीवात्मा के हाथ हताशा, खेद और क्लेश के सिवाय कुछ नहीं आता । वह आकुल–व्याकुल और बावरा बन जाता है। मन की व्याकुलता जीवमात्र को ज्ञान में / परब्रह्म में लीन नहीं होने देती । फलतः वह पूर्णानन्द के मेरुशिखर की ओर गतिशील नहीं बन सकता और यदि गतिशील बन भी जाए तो आधे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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