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________________ ३. स्थिरता सदैव स्थिर रहो । निरन्तर...... सदा सर्वदा ! - स्थिरता मानव का स्थायी भाव होना चाहिए । - ज्ञानमग्न बनने के लिए मानसिक स्थिरता / मन की स्थिरता होना आवश्यक है। उसमें चंचलता, अस्थिरता और विक्षिप्तता के लिए कोई स्थान नहीं है। __ - "मैं स्थिर नहीं रह सकता" कहने से कोई लाभ नहीं है । बारबार यही शिकायत करते रहोगे कि इसका हल खोजना है ? शिकायत को दूर करने का कोई मार्ग निकालना है ? यदि हल खोजना है, मार्ग निकालना है तो इस अष्टक में बताये / निर्दिष्ट उपायों का आधार लेना जरुरी है। योजना को कार्यान्वित करना परमावश्यक है। - यदि अपने आप में आत्मविश्वास जगाओगे कि 'स्थिर रह सकते हैं, तब स्थिर बनने के उपाय खोज निकालोगे-उसे अमल में लाओगे । स्थिरता के रत्न-दीपक के शीतल प्रकाश में आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण जारी रखो, पूर्णता की मंजिल अवश्य मिलेगी और तुम अपने उद्देश्यों मे सफल बनोगे । वत्स ! किं चंचलस्वान्तो भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि ? निधि स्वसन्निघावेव स्थिरता दर्शयिष्यति ॥३॥१॥ अर्थ : हे वत्स ! तू चंचल प्रवृत्ति के बन के भटक-भटक कर क्यों विषाद करता है ? तेरे पास रहे हुए निधान को स्थिरता बतायेगी ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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