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________________ विषयक्रम-निर्देश पूर्णो मग्नःस्थिरोऽमोहो ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तृप्तो निर्लेपो निःस्पृहो मुनिः ॥१॥ विद्याविवेकसम्पन्नो मध्यस्थो भयवर्जितः । अनात्मशंसकस्तत्त्वदृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥२॥ ध्याता कर्मविपाकानामुद्विग्नो भववारिधेः । लोकसंज्ञाविनिर्मुक्तः शास्त्रदृग् निष्परिग्रहः ॥३॥ शुद्धानुभववान् योगी नियागप्रतिपत्तिमान् । भावार्चाध्यानतपसां भूमिः सर्वनयाश्रितः ॥४॥ अर्थ : ज्ञानादि से परिपूर्ण, ज्ञान में निमग्न योगी की स्थिरता से युक्त, मोहविरहित, तत्त्ववेत्ता, उपशमवन्त, जितेन्द्रिय, त्यागी, क्रिया-तत्पर, आत्म-संतुष्ट, निर्लेप और स्पृहा रहित मुनि होता है। वह (मुनि) विद्यावान्, विवेकसम्पन्न, पक्षपात से परे, निर्भय, स्वप्रशंसा नहीं करनेवाला, परमार्थ की दृष्टिवाला और आत्म-सम्पत्तिवाला होता है। वह कर्मफल का विचार करनेवाला, संसार-सागर से भयभीत, लोकसंज्ञा से रहित, शास्त्रदृष्टिवाला और अपरिग्रही होता है । शुद्ध अनुभववाला, योगी, मोक्ष को प्राप्त करनेवाला, भाव-पूजा का आश्रय, ध्यान का आश्रय, तप का आश्रय और सर्व नयों का आश्रय करनेवाला होता है। विवेचन : आठ-आठ श्लोकों का एक अष्टक !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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