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________________ ३२. सर्वनयाश्रय जब एकाध विद्वान्, किसी एक नय-वाद की डोर पकड़, उसे समझाने के लिए आम जनता के बीच में आता है, तब किस प्रकार का कोलाहल, शोरगुल और वाद-विवाद का समाँ बँध जाता है ? विश्व के हर क्षेत्र में एकान्तवाद अभिशाप स्वरुप ही सिद्ध हुआ है । यहाँ पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने अनेकान्तवाद का प्रतिपादन किया है। लोगों को अनेकान्तवाद का प्रतिपादन किया है । लोगों को अनेकान्त दृष्टि प्रदान की है । किसी एक व्यक्ति, वस्तु अथवा प्रसंग को अनेकान्त दृष्टि से देखने-परखने की अद्भुत कला सिखायी है । इसे प्राप्त कर मन में उठती सभी शंका-कुशंकाओं का, प्रश्नों का समाधान ढूंढा जाय, तो कैसी अपूर्व शान्ति मिलेगी ! प्रस्तुत अन्तिम अध्याय अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है। गंभीरता के साथ उसका परिशीलन करना न चूकना । धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः । चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः ॥३२॥१॥ अर्थ : अपने-अपने अभिप्रायानुसार गतिमान्, लेकिन वस्तुस्वभाव में जिसकी स्थिरता है, सभी नय ऐसे होते हैं । चारित्र-गुण में आसक्त साधु सर्व नयों का आश्रय करनेवाला होता है । विवेचन : नयवाद ! कोई भी वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है । उसमें से किसी एक धर्म
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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