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सर्वनयाश्रय
४७५ को ही नय मानता है, स्वीकार करता है। वह अन्य धर्मों का स्वीकार नहीं करता। उनका अपलाप करता है। अत: नयवाद को मिथ्यावाद की संज्ञा दी गयी है। पूज्य उपाध्यायजी महाराज उसे 'नयाभास' कहते हैं ।
नय के कुल सात प्रकार हैं : नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । .
प्रत्येक नय का अपना-अपना अभिप्राय होता है । एक का अभिप्राय दूसरे से कदापि मेल नहीं खाता । प्रत्येक नय का हर एक पदार्थ के सम्बन्ध में अपना पूर्व-निर्धारित ठोस मत होता है । अतः सातों नयों का एक-सा अभिप्राय-निर्णय होना असम्भव होता है। हाँ, एकाध समदृष्टि चिन्तक महापुरुष ही इनका समन्वय साध सकता है... । ऐसा महापुरुष प्रत्येक नय को उनकी भूमिका से ही न्याय देता है।
ऐसे महामानव चारित्रगुणसम्पन्न महामुनि ही हो सकते हैं । जब कभी एकाध नय के मन्तव्य का स्वीकार करते हैं, तब अन्य नय की उपेक्षा नहीं करते, बल्कि उन्हें वे कहते हैं कि, 'यथाअवसर तुम्हारा मन्तव्य भी स्वीकार करेंगे, फिलहाल प्रस्तुत नय का ही काम है, उसका ही प्रयोजन है।' परिणाम स्वरुप वैचारिक टकराहट नहीं होती, पारस्परिक संघर्ष नहीं होता । महामुनि की चारित्र सम्पत्ति लूटे जाने की सम्भावना पैदा नहीं होती । वर्ना उत्तेजित आक्रमक नय, चारित्र-सम्पत्ति को धूल में मिलाते विलम्ब नहीं करते ।
पृथग्नयाः मिथः पक्षप्रतिपक्षकदर्थिताः । समवृत्तिसुखास्वादी, ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥३२॥२॥
अर्थ : विविध नय पारस्परिक वाद-विवाद से विडंबित हैं । समभाव के सुख का अनुभव करनेवाले महामुनि (ज्ञानी) सर्व नयों के आश्रित हैं ।
विवेचन : कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने परमात्मा की स्तुति करते हुए कहा है
'परस्पर और पक्ष-विपक्ष के भाव से अन्य प्रवाद द्वेष से युक्त हैं । लेकिन सभी नयों को समभाव से चाहनेवाला आपका सिद्धान्त पक्षपाती नहीं है।'