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________________ ४७१ बाधक तो सिद्ध नहीं होगा ?' 'आज मेरा उपवास है... अट्टम है, अतः मुझसे स्वाध्याय नहीं होगा, मैं ग्लानसेवा... गुरुसेवा आदि नहीं कर पाऊंगा !' ऐसा तप किसी काम का नहीं । तप इन्द्रियों की शक्ति का हनन नहीं होना चाहिए। जिन इन्द्रियों के माध्यम से संयम की आराधना करनी है, उनका हनन हो जाने पर संयम की आराधना खंडित हो जाएगी । आँख की ज्योति चली जाए तो ? कान से सुनना बन्ध हो जाए तो ? शरीर को लकवा मार जाए तो ? क्या होगा ? साधु-जीवन तो स्वाश्रयी जीवन है। खुद के काम खुद ही करने होते हैं! पादविहार करना, ठीक वैसे ही गोचरी से जीवन - निर्वाह करना होता है ! यदि इन्द्रियों को क्षति पहुँचेगी तो निःसंदेह साधु के आचारों को भी क्षति पहुँचे बिना नहीं रहेगी । कर्तव्यपालन और इन्द्रिय- सुरक्षा का लक्ष्य तपस्वी को चूकना नहीं चाहिए । दुर्ध्यान से मनको बचाना चाहिए। ऐसी सावधानी विशेष रूप से बाह्य तप की आराधना (अनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस- परित्याग, काया - क्लेश और संलीनता) करनेवाले को रखनी चाहिए | साथ ही, सावधानी के नाम पर कहीं प्रमाद का पोषण न हो जाए, इसके लिए सावधानी वरतना जरूरी है । मुलोत्तरगुणश्रेणि-प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये । बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं तपः कुर्यान्महामुनिः ॥३१॥८ ॥ अर्थ : मूलगुण एवं उत्तरगुण की श्रेणिस्वरूप विशाल साम्राज्य की सिद्धि के लिये श्रेष्ठ मुनि बाह्य और अन्तरंग तप करते हैं । विवेचन : मुनीश्वर भी साम्राज्य के चाहक होते हैं । राजेश्वर के साम्राज्य से विलक्षण, विशाल एवं व्यापक साम्राज्य ! यह साम्राज्य है मूलगुण एवं उत्तरगुणों का ! सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र मूल गुण हैं। मूल गण है पाँच प्रकार के महाव्रत । प्राणातिपात विरमण - महाव्रत, मृषावाद विरमण महाव्रत,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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