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________________ ४७० ज्ञानसार ही है !' किसे हर्षित नहीं करेगी ? ऐसी दृढता प्रकट करनेवाला मुमुक्षु सभी के आदर का पात्र और अभिनन्दनीय होता है ! , ___तपस्वी के लिए दृढता आवश्यक है ! नियोजित तप को पूर्ण करने की क्षमता चाहिए। लेकिन सिर्फ तपश्चर्या पूर्ण करने की दृढता से ही उसे वीरता प्राप्त नहीं होती ! उसके लिए निम्नांकित प्रकार की सावधानी भी जरूरी है : दुर्ध्यान नहीं होना चाहिए। मनोयोग-वचनयोग-काययोग को किसी प्रकार की हानी नहीं पहुँचनी चाहिए, अथवा मुनि-जीवन के कर्तव्य-स्वरूप किसी योग को नुकसान न पहुँचे । इन्द्रियों को किसी प्रकार की हानी नहीं पहुँचनी चाहिए । दुर्ध्यान के कई प्रकार हैं । कभी-कभी दुर्ध्यान करनेवाले को कल्पना तक नहीं होती कि वह दुर्ध्यान कर रहा है । दुर्ध्यान का मतलब है दुष्ट विचार, अनुपयुक्त विचार । तपस्वी को कैसे विचार नहीं करने चाहिए, यह भी कोई कहने की बात है ? 'यदि मैंने यह तप नहीं किया होता तो अच्छा रहता... मेरी तपश्चर्या की कोई कदर नहीं करता... कब पूर्णाहूति होगी?' ऐसे विचार हैं, जो दुर्ध्यान कहलाते हैं। यदि तपश्चरठा करते हुए शारीरिक अशक्ति-कमजोरी आ जाए तब कोई सेवा-भक्ति न करे तो दुर्ध्यान होते देर नहीं लगती। लेकिन यह नहीं होना चाहिए। हमेशा आर्तध्यान से बचना चाहिए । योगों की किसी प्रकार की हानी न हो । दुर्ध्यान से मन की, कषाय से वचन की और प्रमाद से काया की हानि होती प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, गुरुसेवा, ग्लानसेवा, शासनप्रभावनादि साधु-जीवन के योग हैं । इनमें किसी प्रकार की शिथिलता पैदा नहीं होनी चाहिए ! ऐसी तपश्चर्या भूलकर भी नहीं करनी चाहिए कि जिससे योगों की आराधना में किसी प्रकार की बाधा पहुँचे । प्रात:कालीन प्रतिक्रमण के समय साधु को जब तप-चिंतन का कार्योत्सर्ग करना होता है, तब भी निरन्तर यह चिंतन-मनन करना चाहिए कि, 'आज के मेरे विशिष्ट कर्तव्यों में कहीं यह तप
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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