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________________ तप ४६९ कषायों का क्षयोपशम होता रहता है । क्रोध, मान, माया और लोभ में क्षीणता आती है। कषायों को उदय में नहीं आने देता है। साथ ही उदित कषायों को सफल नहीं होने देता है । 'तपस्वी के लिए कषाय शोभाजनक नहीं, यह उसका मुद्रालेख बन जाता है। क्योंकि कषाय में खोया तपस्वी, तपश्चर्या की निंदा में निमित्त होता है । उससे तपश्चर्या की कीमत कम होती है । अतः कषायों का क्षयोपशम, यह तपश्चर्या का मूल हेतु / उद्देश्य होना चाहिए ! सानुबन्ध जिनाज्ञा का पालन ! किसी प्रकार की प्रवृत्ति करने के पूर्व 'इसके लिये जिनाज्ञा क्या है ? कहीं जिनाज्ञा का भंग तो नहीं होता !' आदि विचारों की जागृति जरूरी है। "आज्ञा की आराधना कल्याणार्थ होती है, जबकि उसकी विराधना संसार के लिए होती है।' जिनाज्ञा की सापेक्षता के लिए तपस्वी सदैव सजग-सावधान रहे । यदि इन चार बातों की सावधानी बरत कर तपश्चर्या की जाय तो तपश्चर्या का कितना उच्च मूल्यांकन हो ? ध्येयविहीन... दिशाशून्य बनकर परलोक के भौतिक सुखों के लिए शरीर को खपाते रहने में कोई विशेष अर्थ निष्पन्न नहीं होगा । साथ ही किसी जन्म में तो मोक्ष-प्राप्ति होगी ही,' आदि आशय से की गयी कम-ज्यादा तपश्यर्या से आत्मा का उद्धार असम्भव है ! अत: चार बातों का होना अत्यन्त आवश्यक है । ब्रह्मचर्य का पालन, जिनेश्वरदेव का पूजन, कषायों का क्षय और जिनाज्ञा का पारतंत्र्य ! वह भी ऐसा अलौकिक पारतंत्र्य चाहिए कि भवोभव जिनचरण का आश्रय / शरण प्राप्त हो और भवभ्रमण की श्रृंखला टूट जाएँ, छिन्न-भिन्न हो जाएँ । तदेव हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥३१॥७॥ अर्थ : वास्तव में जहाँ दुर्ध्यान हो, जिससे मन-वचन-काया के योगों को हानि न पहुँचे और इन्द्रियों का क्षय न हो (क्रिया करने में अशक्त न बने) ऐसा तप ही करने योग्य है । विवेचन : ऐसी दृढ़ता कि, 'कुछ भी हो जाए, लेकिन यह तप तो करना
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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